गुरु
शिष्य का संबंध अवर्णनीय है।
जब
स्वामी राम 7 वर्ष के थे तब ज्योतिषियों ने कहाः “इस
बालक की 28 वर्ष में मृत्यु हो जायेगी।”
राम
सिसक-सिसक के रोने लगे कि ‘मैं इतनी अल्पायु में ही मर जाऊँगा और
जीवन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाऊँगा।’ सहसा उनके
सदगुरु बंगाली बाबा पधारे और उनके रोने का कारण पूछा। बालक राम ने सारी बात बता
दी। गुरुदेव बोलेः “राम ! तुम दीर्घकाल तक जीवित रहोगे क्योंकि मैं
तुम्हें अपनी आयु देता हूँ।”
ज्योतिषीः “यह
कैसे सम्भव है ?”
“ज्योतिष से परे
भी कुछ होता है।”
जब
स्वामी राम 28 वर्ष के हुए तो गुरुदेव ने उन्हें आज्ञा दीः “ऋषिकेश
जाकर साधना करो।” जब भी सदगुरु कोई आज्ञा करते हैं तो उसमें शिष्य का कल्याण ही छुपा होता है, भले
किसी की समझ में आये न आये। सच्चे शिष्य को तो बस आज्ञा मिलने की देर है, वह
लग जाता है।
आज्ञा
पाते ही स्वामी राम चल पड़े। गुरु की बतायी साधना करते हुए वे स्वछन्द रूप से
पहाड़ों में विचरण करते थे। एक दिन अचानक उनका पैर फिसला और वे पहाड़ से नीचे लुढ़कने
लगे। उन्हें लगा कि ‘जीवन का अब यही अवसान (अंत) है।’ किंतु
ज्यों ही वे लुढ़कते-लुढ़कते लगभग 500 फीट नीचे
पहुँचे, अचानक कँटीली झाड़ी में जाकर फँस गये। झाड़ी की
एक नुकीली शाखा उनके पेट में जा घुसी। सहसा उन्हें अपने गुरुदेव की यह बात याद आयी
कि ‘जब भी कभी आवश्यकता पड़े तब मुझे याद करना।’ उन्होंने
जैसे ही अपने गुरुमंत्र का उच्चारण व गुरुदेव का स्मरण किया, उन्हें
सदगुरु का ज्ञान याद आया कि ‘मैं नहीं मरता, मैं
अमर आत्मा हूँ। मृत्यु शरीर का धर्म है। मैं स्वयं को शरीरभाव से क्यों देख रहा
हूँ ?’
अत्यधिक
रक्तस्राव के कारण स्वामी राम को मूर्च्छा आने लगी। उसी समय ऊपर मार्ग पर जा रहे
कुछ लोगों ने उनको देख लिया और ऊपर खींचकर जमीन पर लिटा दिया।
स्वामी
राम ने चलने का प्रयास किया किंतु कुछ ही देर में वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
उन्होंने गुरुदेव को याद करते हुए कहाः ‘गुरुदेव ! मेरा
जीवन समाप्त हो गया, आपने मेरा पालन-पोषण किया और सब कुछ किया किंतु
आज मैं बिना आत्मानुभूति के मर रहा हूँ।’
एकाएक
उनके गुरुदेव वहीं प्रकट हो गये। स्वामी राम ने सोचा, ‘शायद
यह मेरे मन का भ्रम है।’ वे बोलेः “क्या
आप सही में यहाँ पर हैं ?”
गुरुदेवः
“बेटा ! तुम चिंतित क्यों हो रहे हो ? तुम्हें कुछ भी
नहीं होगा। तुम्हारी मृत्यु का यही समय था पर गुरुकृपा से मृत्यु को भी टाला जा
सकता है।”
गुरुदेव
कुछ पत्तियाँ लाये और उन्हें कुचलकर स्वामी राम के घावों पर रख दिया। गुरुदेव
उन्हें एक गुफा में ले गये और वहाँ कुछ लोगों को उनकी देखभाल में रखकर चले गये। 2
सप्ताह में स्वामी राम के घाव ठीक हो गये। उन्हें एहसास हुआ कि किस प्रकार सच्चे, समर्थ
गुरु दूर रहकर भी अपने शिष्य का ख्याल रखते हैं। उन्हें यह साक्षात् अनुभव हुआ कि
गुरु और शिष्य के बीच का संबंध एक उच्चतम एवं पवित्रतम संबंध होता है। यह संबंध
अवर्णनीय है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून
2017, पृष्ठ संख्या 10, अंक 294
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