मंदिर टूटने से बच गया....
संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
                            औरंगजेब को राज्य मिल गया था फिर भी काम, क्रोध, लोभ एवं बड़ा कहलवाने की  वासना के कारण ही उसने अन्याय किया, मंदिरों को तोड़ा बहुतों को सताया।  आखिरकार वह अभागा काशी गया और संत तुलसीदास जी को सताया। उसका इरादा भगवान  विश्वनाथ के मंदिर को तोड़ने का था। उस समय गोस्वामी तुलसीदासजी वहीं पर थे। किसी ने औरंगजेब से उनके बारे में  कहाः "ये हिन्दुओं के जाने-माने संत हैं। अगर इनकी सुन्नत हो जाये, अगर ये  मुस्लिम धर्म को अपना लें तो बाकी के हिन्दू भी मुसलमान बन जायेंगे।"
                            उस बेवकूफ औरंगजेब को पता ही नहीं था कि जो व्यक्ति जिस धर्म में है वहीं उसका  आध्यात्मिक उत्थान हो सकता है। किसी को जबरन पकड़कर अपने मजहब में घसीटकर लाना  और इससे खुदा राजी होता है यह मानना, यह तो बेवकूफों की बातें हैं, मूर्खों की  बातें हैं। उस मूर्ख औरंगजेब ने संत तुलसीदास जी से कहाः "ऐ काफिर ! इधर क्यों बैठा है ?" संत तुलसीदास जी ने कोई जवाब नहीं दिया। औरंगजेब के उत्तेजक वचनों ने  तुलसीदासजी के हृदय में न भय उत्पन्न किया न क्षोभ, न उत्तेजना उत्पन्न की न  घृणा और न कायरता पैदा की न वियोग की भावना क्योंकि काम, क्रोध और लोभ इन  शत्रुओं के सिर पर पैर रखकर वे महान बन चुके थे। औरंगजेब के वचनों ने तुलसीदासजी के हृदय में कोई चोट नहीं पहुँचायी। वह बकता  जा रहा है और तुलसीदासजी शांति से सुने जा रहे हैं। जो व्यक्ति भीतर से शांत रह सकता है वही बड़े काम कर सकता है, वही शत्रु का  मर्दन कर सकता है, शत्रु की नाक में दम ला सकता है। जो शत्रुओं की बातों से उत्तेजित हो जाता है। किन्तु जो उत्तेजित नहीं होता वह  विजयी हो जाता है क्योंकि शांत मन में ही उत्तम विचार आ सकते हैं।
                            धर्म आपको  यह नहीं सिखाता कि किसी की जरा सी कठोर बातें सुनकर ही तलवारें उठा लो।  नहीं.... धर्म क्रूरता नहीं सिखाता है और कायरता भी नहीं सिखाता, वरन् धर्म तो  यह सिखाता है कि तुम्हारा मन तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि का ऐसा विकास हो  कि परिस्थितियों के सिर पर पैर रखकर परमात्मा का साक्षात्कार कर लो। धर्म  तुम्हें गहराई में जाने की कला सिखाता है। धर्म ते बिरती योग ते ज्ञाना। ज्ञान ते मोक्ष पावै पद निर्वाणा।। धर्म से वैराग्य, वैराग्य से ज्ञान और ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। तुलसीदासजी को वह क्रूर औरंगजेब चाहे जैसा-तैसा सुनाये जा रहा था। सत्ता मिल  जाना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन सत्ता का सदुपयोग करना बड़ी बात है। सत्ता का  दुरुपयोग किया उस अंधे ने। अकबर थोड़ा सुलझा हुआ था जबकि औरंगजेब उलझा हुआ। दूसरे भी कई ऐसे आये। नामदेव  को भी औरंगजेब जैसे किसी उलझे हुए सम्राट ने बड़ा सताया था लेकिन नामदेव भी  क्रुद्ध नहीं हुए थे। उसको नामदेव जी ने दिन के तारे दिखा दिये थे। उन लोगों को सत्ता मिलती है तो हिन्दू साधु-संतों को बोलते हैं कि ʹयह करके  दिखाओ... वह करके दिखाओ...ʹ लेकिन जब हिन्दू सम्राटों को सत्ता मिली तो  उन्होंने कभी मुल्ला-मौलवियों को नहीं सताया कि ʹयह करके दिखाओ.... वह करके  दिखाओ....ʹ

                            सनातन धर्म में ही यह उदारता है, विशेषता है। सनातन धर्म दूसरों के  भी अनुकूल हो जाता है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि सनातन धर्मवालों को कायर होना चाहिए। नहीं, वीर  होना चाहिए, बुद्धिमान होना चाहिए। तुलसीदास जी में समझ भी थी और वे शौर्यवान्  भी थे। तुलसीदासजी दिनभर अपनी कुटिया में रहते और सुबह-शाम भगवान विश्वनाथ के मंदिर  में बैठते। औरंगजेब ने उनसे पुनः पूछा। "ऐ काफिर ! इधर क्यों बैठा है ?" तुलसीदासजी बोलेः "ये मेरे भगवान हैं और तुम्हारे मालिक हैं।" औरंगजेबः "तुम्हारे भगवान अगर सच्चे हैं तो उनका यह बैल भी सच्चा होना चाहिए।  इसको घास खिलाकर दिखाओ, नहीं तो धर्म बदलो या फिर तलवार के आगे खड़े हो जाओ।" तुलसीदासजीः "न ही धर्म बदलना है और न ही तलवार के आगे खड़े रहना है। अब तुम  क्या करोगे ?" औरंगजेबः "तो फिर बैल को घास खिलाकर दिखाओ।" तुलसीदासजीः "नहीं दिखाएँगे।" औरंगजेबः "नहीं दिखाओगे तो हम मंदिर तोड़ डालेंगे।" मंदिर तोड़ने की बात सुनकर लोगों में भय व्याप्त हो गया। तुलसीदासजी अपने शांत  स्वभाव में स्थिर होकर आत्मा की गहराई में चले गये। उन्होंने इन्द्रियों को मन  में लीन कर दिया, मन को बुद्धि में लीन कर दिया और बुद्धि को उस बुद्धिदाता  में बिठाकर संकल्प किया। फिर उऩ्होंने घास लेकर जैसे ही उस बैल के सामने रखा  तो पत्थऱ के बैल में चेतना आई और उसकी जिह्वा बाहर निकली। औरंगजेब घबरा गया और  वहाँ से पलायन हो गया। इस प्रकार भगवान विश्वनाथ का मंदिर टूटने से बच गया। जड़ चेतन सभी में व्याप्त ईश्वर अपनी लीला दिखाने के लिए कभी-कभी किसी संत के  द्वारा, किसी घटना के द्वारा प्रगट हो जाते हैं। तुलसीदासजी की कृपा स  विश्वनाथ का मंदिर अन्यायी औरंगजेब के हाथों टूटने से बच गया। स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 80 ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ ૐૐૐૐૐ