मानव आते हुए भी रोता है और जाते हुए भी रोता है । जो वक्त रोने का नहीं तब भी रोता है । केवल एक पूर्ण सद्गुरु में ही ऐसा सामर्थ्य है जो इस जन्म मरण के मूल कारण अज्ञान को काटकर मनुष्य को रोने से बचा सकते हैं। केवल गुरु ही आवागमन के चक्कर से, काल की महान ठोकरों से बचाकर शिष्य को संसार के दु:खों से ऊपर उठा देते हैं। शिष्य के चिल्लाने पर भी वे ध्यान नहीं देते । गुरु के बराबर हितैषी संसार में कोई भी नहीं हो सकता।
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ऐसे लोगों से सम्बन्ध रखो कि जिससे आपकी सहनशक्ति बढ़े, समझ की शक्ति बढ़े, जीवन में आने वाले सुख-दुःख की तरंगों का आपके भीतर शमन करने की ताकत आये, समता बढ़े, जीवन तेजस्वी बने।
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जैसे किसी सेठ या बड़े साहब से मिलने जाने पर अच्छे कपड़े पहनकर जाना पड़ता है, वैसे ही बड़े-में-बड़ा जो परमात्मा है, उससे मिलने के लिए अंतःकरण इच्छा, वासना से रहित, निर्मल होना चाहिए।
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जैसे बालक प्रतिबिम्ब के आश्रयभूत दर्पण की ओर ध्यान न देकर प्रतिबिम्ब के साथ खेलता है, जैसे पामर लोग यह समग्र स्थूल प्रपंच के आश्रयभूत आकाश की ओर ध्यान न देकर केवल स्थूल प्रपंच की ओर ध्यान देते हैं, वैसे ही नाम-रूप के भक्त, स्थूल दृष्टि के लोग अपने दुर्भाग्य के कारण समग्र संसार के आश्रय सच्चिदानन्द परमात्मा का ध्यान न करके संसार के पीछे पागल होकर भटकते रहते हैं।
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प्रेमी आगे-पीछे का चिन्तन नहीं करता। वह न तो किसी आशंका से भयभीत होता है और न वर्त्तमान परिस्थिति में प्रेमास्पद में प्रीति के सिवाय अन्य कहीं आराम पाता है।
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रोज प्रातः काल उठते ही ॐकार का गान करो | ऐसी भावना से चित्त को सराबोर कर दो कि : ‘मैं शरीर नहीं हूँ | सब प्राणी, कीट, पतंग, गन्धर्व में मेरा ही आत्मा विलास कर रहा है | अरे, उनके रूप में मैं ही विलास कर रहा हूँ | ’ भैया ! हर रोज ऐसा अभ्यास करने से यह सिद्धांत हृदय में स्थिर हो जायेगा।
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भय केवल अज्ञान की छाया है, दोषों की काया है, मनुष्य को धर्ममार्ग से गिराने वाली आसुरी माया है। याद रखो: चाहे समग्र संसार के तमाम पत्रकार, निन्दक एकत्रित होकर आपके विरुध आलोचन करें फ़िर भी आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। हे अमर आत्मा ! स्वस्थ रहो।
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लोग प्रायः जिनसे घृणा करते हैं ऐसे निर्धन, रोगी इत्यादि को साक्षात् ईश्वर समझकर उनकी सेवा करना यह अनन्य भक्ति एवं आत्मज्ञान का वास्तविक स्वरूप है।
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श्रीरामचन्द्रजी मानव रूप में धरती पर रहते हैं। रामजी कभी महलों में रहते हैं तो कभी वनवास, कभी मोहन भोग पाते हैं तो कभी कन्दमूल, कभी हँसते हैं तो कभी रोते हैं, कभी प्रसन्न रहते हैं तो कभी व्याकुल भी हो जाते हैं, कभी संयोग होता है तो कभी वियोग होता है, कभी एकान्त में चिन्तन करते हैं तो कभी युद्धभूमि में युद्ध करना पड़ता है। सबके जीवन में सुख-दुःख आते हैं, अनुकूलता-प्रतिकूलता आती है, न्याय-अन्याय आता है। हम अपने मन को ठीक रखते हैं तो इन सारी परिस्थितियों में अपने साक्षीत्व में प्रतिष्ठित हो जाते हैं - पूज्य संत श्री आशारामजी बापू ।
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अगर कोई व्यक्ति घोड़े की लगाम की जगह उसकी पूँछ पकडे तो उसकी हालत खराब हो जाती है। ऐसे ही हम लोग गलती यह करते है कि मन के कहने में चलने लग जाते है , जबकि मन को हमे अपने कहने में चलाना चाहिए। मन के कहने में चलना मन रुपी घोड़े की पूँछ पकड़ने के सामान है, जबकि मन का स्वामी बनकर उसे अपने कहने में चलाना मन की लगाम पकड़ना है।
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कोल्हू का बैल दिन रात चलता है, हज़ारो किलो मीटर चल लेता है फिर भी रहता वहीं का वहीं है, उसी कोल्हू के पास। ऐसे ही मनुष्य भी खूब दौड़ भाग करता है, दिन रात मेहनत करता है, क्या क्या नहीं करता पर रहता अहंकार के इर्द गिर्द ही है। और अंत समय सब किया कराया व्यर्थ हो जाता है, हाथ कुछ नहीं आता, अतः बुद्धिमान मनुष्य को इस अहंकार से छूटने का प्रयास करना चाहिए।
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जो ईश्वर सर्वदा है वह अभी भी है। जो सर्वत्र है वह यहाँ भी है। जो सबमें है वह आपमें भी है। जो पूरा है वह आपमें भी पूरे का पूरा है। ऐसा समझकर यदि उस परमात्मा को प्यार करो तो आप परमात्मा के तत्त्व को जल्दी समझ जाओगे।
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इस सम्पूर्ण जगत को पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर जानकर तुम आत्मा में स्थिर हो जाओ। तुम अद्वैत दृष्टिवाले को शोक और मोह कैसे?
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गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन करते दान। गुरु बिन दोनों निष्फल है चाहे पुछो वेद पुराण॥
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गुरुशक्ति अणुशक्ति से भी ज्यादा शक्तिशाली है।
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श्रीमद् भागवत में जड़भरत जी कहते हैं किः "जब तक महापुरुषों की चरणधूलि जीवन अभिषिक्त नहीं होता तब तक केवल तप, यज्ञ, दान, अतिथि सेवा, वेदाध्ययन, योग, देवोपासना आदि किसी भी साधन से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।" महापुरुषों की, सदगुरुओं की शरण मिलना दुर्लभ है। महापुरुष एवं सदगुरु मिलने पर उन्हें पहचानना कठिन है। हमारी तुच्छ बुद्धि उन्हे पहचान न भी पाये तो भी उनकी निन्दा, अपमान आदि भूलकर भी न करो। शुकदेव जी राजा परीक्षित को बताया था कि जो लोग महापुरुषों का अनादर, अपमान, निन्दा करते हैं उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, यश, धर्म, लोक-परलोक, विषय-भोग और कल्याण के तमाम साधनों को नष्ट कर देता है । निन्दा तो किसी की भी न करो और महापुरुषों की निन्दा, अपमान तो हरगिज नहीं करो।
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गुरू कृपा की सम्पत्ति जैसा और कोई खजाना नहीं है। भवसागर को पार करने के लिए गुरू के सत्संग जैसी और कोई सुरक्षित नौका नहीं है।आध्यात्मिक गुरू जैसा और कोई मित्र नहीं है। गुरू के चरणकमल जैसा और कोई आश्रय नहीं है।
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उल्लू सुर्य के प्रकाश के अस्तित्व को माने या न माने फिर भी सूर्य हमेशा प्रकाशता है। चंचल मन का मनुष्य माने या न माने लेकिन सदगुरु की परमकल्याणकारी कृपा सदैव बरसती ही रहती है।
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