अगर भक्ति रस का रसास्वाद लेना है, विकारी आकर्षणों से जान छुड़ानी है, दुःखों और परेशानियों से अपना पिंड छुड़ाना है तो आठ बातों पर ध्यान देना बड़ा हितकारी। भगवन्नाम-जप में रूचि हो। माला पर जपें, मानसिक जपें या वाचिक जपें, वैखरी से जपें, मध्यमा से जपें, पश्यंती से जपें या परा से जपें लेकिन नामजप में रुचि बढ़ा दें। बोलेः'रूचि नहीं होती।'तो भी नामजप बढ़ा दें, रूचि बढ़ जायेगी। भगवन्नाम-कीर्तन व भगवद-गुणगान करें। सत्संग का आश्रय लेते रहें, बार बार सत्संग की शरण जायें। सासांरिक चर्चा से बचें। फालतू चर्चा – क्या बनाया, क्या खाया, उसका क्या नाम है, फलाना कहाँ है, ढिमका कहाँ है.. इससे राग-द्वेष बढ़ता है, शक्ति क्षीण होती है। दूसरों की निंद न करें, न सुनें। स्वयं अमानी रहकर दूसरों को मान दें। मान की इच्छा रखने से जीवभाव, अहंकार उभरता है, जो भक्तिरस में बाधा है। मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाये। चाह उसी की राखता, सो भी अति दुःख पाये।। जब कोई सेवा करता है तो लोग बोलते हैं'वाह भाई!तुमने बहुत बढ़िया काम किया।'यदि सेवा करने वाला बुद्धिमान होगा तो सतर्क हो जायेगा, सकुचायेगा और कोई अहंकारी होगा तो छाती फुलायेगा। जो अहंकारी, स्वार्थी लोग होते हैं वे काम थोड़ा करते हैं और नाम ज्यादा चाहते हैं। वे झुलसते हैं बेचारे, खाली रह जाते हैं। जो साधक होते हैं वे काम बहुत करते हैं और नाम नहीं चाहते हैं, तो भक्तिरस उनके हृदय में उभरता रहता है, आनंद उनके हृदय में उभरता रहता है। अपने चित्त को दुःखी न करें और दूसरे का चित्त दुःखी हो ऐसी बात नहीं करें। ऐसी बात सुनाने का मौका भी आता है तो इस ढंग से सुनायें की उसको ज्यादा दुःख न हो। सर्वदा सच्चरित्र रहें और सत्यस्वरूप में गोता मारने का अभ्यास करें। भगवान और गुरू से निरहंकार होकर प्रेम करने से भक्तिरस बढ़ता है। जो उनसे संसारी माँग करते हैं वे असली खजाने से वंचित रह जाते हैं। भक्तिरस के आगे दुनिया के वैभव कुछ मायना नहीं रखते। शांत रस, वीर रस, हास्य रस, श्रृंगार रस-ऐसे अनेक प्रकार के रस हैं लेकिन भक्ति के आचार्यों ने कहा कि इन सबमें प्रेमरस का ही प्राधान्य है। प्रेमरस ही अनेक रूप होकर दिखता है। सिनेमा में जो दिखाते हैं, वह तो सत्यानाश करने वाला काम है। प्रेमी-प्रेमिका जो प्रेमिका दिखाते हैं वह तो सत्यानाश करने वाला काम विकार है। प्रभुप्रेम तो परमात्ममय बना देता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ