एक
मुल्ला जी प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन के बीच उन्होंने कहाः "खुदा की खुदाई को
कोई नहीं जानता।" यह बात जुन्नेद के एक सिंधी मित्र के कान पर पड़ी। सिंधी
मित्र वेदान्ती था। वह गया मुल्लाजी के पास और बोलाः "मुल्ला जी ! राम-राम।"
मुल्लाजीः "तुम सिंधी हो ?"
सिंधीः "हाँ, मैं
अपने मित्र जुन्नेद से मिलने आया था। मैंने आपका प्रवचन सुना। आपने और सब तो जो कहा सो कहा लेकिन ʹखुदा
की खुदाई को कोई नहीं जानताʹ यह कहने से लोगों की लघुताग्रंथि पक्की
हो जायेगी। उनके ज्ञान का विकास नहीं हो पायेगा।
तद् विद्धि प्रणिपातने परिप्रश्नेन
सेवया।
हमारी गीता जी में कहा है कि समझ में न
आये तो प्रश्नोत्तरी करके भी ज्ञान बढ़ाओ। ʹखुदा की खुदाई
को कोई नहीं जानताʹ यह बात मेरी समझ में नहीं आयी है, आप
माफ करना।"
मुल्लाजीः "क्या तुम खुदा की
खुदाई को जानते हो ?"
सिंधीः "हाँ।"
मुल्लाजीः "जानते हो तो
दिखाओ।"
सिंधीः "दिखा दूँ तो ?"
मुल्लाः "दिखा तो लग गई शर्त सौ
रूपये की और यदि नहीं दिखा पाये तो ?"
सिंधीः "तो मैं आपको सौ रूपये
दूँगा।"
मुल्लाः "जामिन कौन ?"
सिंधीः "मेरा जामिन
जुन्नेद।"
जुन्नेदः "क्यों सौ रूपये का पानी
करते हो दोस्त ? माफी माँग लो।"
सिंधीः "माफी क्यों माँगें ? खुदा
की खुदाई को कोई कैसे नहीं जानता ? मैं खुदा की
खुदाई को जानता हूँ। तू जामिन हो जा, हाँ बोल दे, पचास
रूपये तेरे।"
जुन्नेदः "हार गये तो ?"
सिंधीः "तेरे से नहीं लूँगा। तू
हाँ तो बोल।"
मुसलमान जुन्नेद और सिंधी आपस में
मित्र थे। बात पक्की हो गयी।
सिंधी मुल्ला जी से बोलता हैः
"चलो मेरे साथ, मैं खुदा की खुदाई दिखाता हूँ।"
वे लोग चल पड़े तो उनके साथ जो कथा सुन
रहे थे वे 100-150 श्रोता भी चल पड़े।
उस समय मजहब
(धर्म) को लेकर ज्यादा खींचातानी नहीं होती थी। सिंधी ने सब लोगों से कहाः
"अपना मजहब और पराया मजहब करके पक्षपात करना यह खुदा के दरबार में गुनहगार
होना है। आप लोग सत्य जिसका हो उसका ही पक्ष लेना। ऐसा मत सोचना कि ये हमारे हैं
और ये परायें हैं।"
उन सबने मिलकर कहाः "नहीं, नहीं, यदि
तुम्हारी बात सत्य होगी तो हम सब मिलकर तुम्हारा ही पक्ष लेंगे।"
सिंधी ले गया उन सबको सिंधु नदी के
किनारे और बोलाः "यह जो सिंधु नदी बह रही है यह खुदा की खुदाई है।"
मुल्लाः "क्या यह खुदा की खुदाई
है ?"
सिंधीः "खुदा की खुदाई नहीं है तो
क्या मुल्लाजी ! आपने खुदाई है ? आपके बाप ने खुदाई है ? या
किसी दूसरे ने खुदाई है ? बोलो। यह खुदा की ही खुदाई है कि नहीं?"
लोगों ने कहा कि
बात तो सच्ची है। मुल्लाजी ने सौ रूपये सिंधी को दे दिये। अब तो मुल्ला जी को लगा
कि सिंधी के बच्चे को सीधा करूँगा। वह जुन्नेद को रोज कथा में बुलाता था। दो
सप्ताह के बाद सिंधी फिर पहुँचा कथा में। उस वक्त मुल्ला ने कहाः "इन्सान के
दिल की बात कोई नहीं जानता।"
सिंधी ने प्रवचन पूरा होने के बाद
मुल्लाजी से कहाः "आज आपने यह कैसे कह दिया कि इन्सान के दिल की बात कोई नहीं
जानता ?"
मुल्लाजी को पिछली शर्त हार जाने का
गुस्सा था ही। वे बोलेः "हाँ, कोई नहीं जानता।
क्या तुम जानते हो ?"
सिंधीः "हाँ, मैं
जानता हूँ।"
मुल्लाः "लगी दो सौ की शर्त ?"
सिंधीः "आप भले चार सौ की शर्त
लगा लो।"
मुल्लाः "ठीक है। पहले को सौ वापस
ले लेंगे और तीन सौ ज्यादा कमा लेंगे। मगर तुम
इन्सान के दिल की बात जानते हो ?"
सिंधीः "हाँ, जानता
हूँ।"
मुल्ला ने सोचा
कि यदि यह सचमुच जानता होगा फिर भी इसको झूठा साबित कर देंगे। यदि सच्चा बतायेगा
तो भी मैं बोल दूँगा कि यह मेरे मन की बात नहीं है। आज मैं झूठ बोलकर भी जीत जाऊँगा।
मुल्ला बोलाः "अच्छा, मेरे
मन की बात बताओ।"
सिंधी समझ गया कि इसके मन की बात
बताऊँगा तब भी स्वीकार नहीं करेगा। किन्तु वह भी पीछे हटने वाला नहीं था। वह
थोड़ा-सा शांत हो गया और उसने युक्ति से मुक्ति खोज ली।
सिंधी बोलाः "मुल्ला जी ! आपके मन
की केवल एक बात ही नहीं, चार सौ की शर्त लगायी है तो चार बातें
बता सकता हूँ। चारों की चार बातें सच्ची होंगी। चार में से यदि एक भी झूठी हो तो
तुम हजार रूपये और भी ले सकते हो।"
ऐसा कहकर सिंधी ने मुल्ला का मनोबल
थोड़ा कमजोर कर दिया।
मुल्लाः "अच्छा, अच्छा
बताओ।"
सिंधीः "आप सदा राजा साहब की खैर
चाहते हो, कभी भी आपके मन में ऐसा नहीं आया कि राजा साहब
मर जायें।"
अब मुल्ला मुकरे
कैसे ? ʹराजा साहब की खैर नहीं चाहता हूँʹ ऐसा बोले तो
मुसीबत में पड़ेगा। मुल्ला को मानना पड़ा। सिंधीः "दूसरी बात यह है कि जो लोग
आपका प्रवचन सुनने आते हैं उनका आप भला चाहते हैं। आप चाहते हैं कि वे सब नेक
इन्सान बनें। कोई बदमाश न हो, सबका भला हो। यह आप चाहते हो, यह
बात मैं दावे से कहता हूँ। झूलेलाल भगवान की कसम खाकर कहता हूँ।"
इस बार भी मुल्ला कैसे मुकरे ? उसे
स्वीकार करना पड़ा। वह बोलाः "अच्छा, अब दो बातें और बताओ।"
मुल्ला ने सोचा चलो, दो
बातें तो इसकी माननी पड़ी। अब बाकी की दो बातों में मैं इन्कार कर दूँगा। लेकिन
करे तो कैसे करे ?
सिंधीः "आप सदा चाहते हो कि आपके
कुटुम्बी भी कुराने शरीफ की आज्ञा के अनुसार अपनी नेक जिन्दगी गुजारें। नमाज पढ़ते
रहें। लोगों के लिए आदर्श बनें। ऐसा नहीं कि शैतान की तरह जिन्दगी बितायें।"
अब मुल्ला न कैसे कहता ? बोलाः
"अब चौथी बात बता दो।"
मुल्ला जी ने सोचा कि इन तीन बातों के
लिए तो ʹहाँʹ करनी पड़ी
किन्तु चौथी के लिए तो ʹनाʹ बोल ही दूँगा और
शर्त जीत जाऊँगा।
सिंधीः "आप यह भी सदा चाहते हैं
कि आपके मरने के बाद लोग आपकी नेकी गायें। आपसे कोई ऐसा बुरा काम न हो कि आपकी
मृत्यु के समीप आप पर धब्बा लगे। लोग आपको खुदा का प्यारा मानें, ऐसा
सज्जनता का काम आप करना चाहते हैं।"
सिंधी सांई की विचारयुक्त बातों के आगे
मुल्ला मुकर नहीं सका। वह बोलाः "भाई ! मान गया मैं तो, ये
लो चार सौ रूपये।"
दस-बारह सप्ताह के बाद फिर सिंधी आया।
मुल्लाजी उस समय कह रहे थे किः "फलाने दिन कयामत होगी और सब मर जायेंगे।
इसलिए जल्दी से नेक काम कर लो।"
सिंधीः "यह संभव नहीं है।"
मुल्लाः "संभव कैसे नहीं है ? फलाने
दिन कयामत (प्रलय) हो ही जायेगी। दूसरी बात यह है कि आसमान में तारे कितने हैं यह
कोई नहीं जानता।"
सिंधीः "मैं जानता हूँ।"
मुल्लाः "तीसरी बात भी सुन लो कि
पृथ्वी का मध्यबिन्दु कोई नहीं जानता।"
सिंधीः "मैं जानता हूँ।"
मुल्लाः "अच्छा.... सिंधी ! पाँच
सौ ले गये हो, अब हजार रूपये वापस देने पड़ेंगे।"
सिंधीः "लग गई हजार रूपये की
शर्त।"
जुन्नेद अपने सिंधी मित्र से कहता हैः
"क्यों गँवाते हो यार ! हजार रूपये कैसे जीतेंगे ? फलाने
दिन तो कयामत हो ही जायेगी।"
सिंधीः "अरे पगले ! कयामत हो
जायेगी तो लेने वाला भी मर जायेगा, माँगेगा कहाँ ? अगर
नहीं हुई तो जीत जायेंगे। कमाई का धंधा है।"
मुल्लाः "बताओ, आकाश
में तारे कितने हैं ?"
सिंधीः "यह जो काली गाय खड़ी है
उसके शरीर पर जितने बाल हैं, ठीक उतने ही आकाश में तारे हैं।"
मुल्लाः "कैसे ?"
सिंधीः "आप गिन लो। कम ज्यादा हुए
तो हम जिम्मेदार हैं।"
मुल्ला जी क्या गिनते ? हार
मान ली। फिर बोलेः "पृथ्वी का मध्यबिन्दु कोई नहीं जानता।"
सिंधी ने उठाया डण्डा और वहीं पर एक
जगह रखते हुए बोलाः "यही पृथ्वी का मध्यबिन्दु है।"
मुल्लाः "कैसे ?"
सिंधीः "आप पूरी पृथ्वी नपा
लीजिये, यही मध्यबिन्दु मिलेगा।"
पृथ्वी एक गेंद की तरह है। गेंद पर
कहीं भी निशान लगा दो, वही उसका मध्यबिन्दु होता है।
मुल्ला को अब भी हार माननी पड़ी। फिर
वह बोलाः "अभी एक बात बाकी है। फलाने दिन कयामत होगी।"
सिंधीः "नहीं होगी।"
कयामत का दिन बीत गया, रात
बीत गयी।
सिंधी पहुँचा मुल्ला जी के पास और
बोलाः "राम-राम मुल्लाजी ! कयामत नहीं हुई, हजार रूपये
निकालिए।"
मुल्लाजी ने हजार रूपये दे दिये। इस
प्रकार कुल मिलाकर मुल्लाजी पन्द्रह सौ रूपये हार गये।
सिंधीः "मुल्ला जी ! अगर आपका दिल
दुःखता है तो हम रूपये वापस दे सकते हैं।"
मुल्लाः "नहीं, नहीं।
लोग क्या कहेंगे ? हम वापस नहीं लेंगे।"
सिंधी ने जुन्नेद से कहाः "साढ़े
सात सौ रूपये का मैं साधु-संत महात्माओं
में भण्डारा करवाऊँगा। मुझे ये रूपये नहीं चाहिए।"
साढ़े सात सौ
रूपये के गहने बनवाकर जुन्नदे की बहू को दे दिये और साढ़े सात सौ रूपये सिंधु नदी
के किनारे भजन करने वाले साधु-संतों की सेवा में लगा दिये। संत-महापुरुषों की सेवा
भी हो गयी और आने वाले भक्तों को प्रसाद भी मिल गया। सिंधी का हृदय भी पवित्र हो
गया।
अपनी बुद्धि का
सदा आदर करना चाहिए। किसी से वैर नहीं बाँधना चाहिए। साथ ही मूर्खता भी नहीं होनी
चाहिए। कोई हमें मूर्ख बनाकर अपना कार्य साध ले ऐसा नहीं होना चाहिए। हम उदार हों, सज्जन
हों, स्नेही हों, हमारा व्यवहार मधुर हो लेकिन उसके साथ
हम सतर्क, कुशल और शूरवीर भी बनें। मूर्ख न बनें, कायर
न रहें। न बुद्धि की मंदता हो, न शारीरिक कायरता हो। तभी आप एक सफल
जीवन जी सकते हैं। सफल जीवन के लिए बुद्धि का आदर करने वाले जीवन्मुक्त महात्मा
पुरुष का सत्संग करना चाहिए।
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