यह सब सुन-सुनकर ही माना है।

            एक बार किन्हीं सूफी संत से चर्चा करते-करते किसी बात पर अकबर ने कहा : ‘‘महाराज ! मैं जानता हूँ ।

            संत ऊँचे अनुभव से सम्पन्न थे । बोले : ‘‘तू क्या जानता है ?

            अकबर : ‘‘महाराज ! मेरा अनुभव है ।

            ‘‘अरे, तू कौन है यह तेरे को पता नहीं तो तेरा अनुभव क्या है ?

            ‘‘महाराज ! मैं कौन हूँ ? मैं तो अकबर हूँ ।

            ‘‘नहीं, अब तू समझ कि तू कौन है । एक काम कर अकबर ! नगर में जाँच करवा, कोई शिशु हो जो अभी-अभी जन्मा हो, उसको ले आ के कारागृह में रखवा । उसके रहने, खाने, पीने की सुविधा आदि सब करना लेकिन उसके कान में कोई कुछ न कहे । तू हिन्दू है, मुसलमान है, बोहरा (एक मुस्लिम जाति) है, गरीब है, अमीर है, तू फलाना है...- कुछ भी न कहा जाय और उसको बडा होने देना । फिर वह मैं कौन हूँ ? - इस बारे में क्या कहता है जरा जाँच करना ।

            किसीका नवजात शिशु लाकर कारागृह में रखा गया । उसके पालने-पोसने की साधन-सामग्री जुटा दी गयी लेकिन उसको कुछ कहा नहीं गया । लडका ४ साल का हो गया । उसको पता ही नहीं था कि मैं हिन्दू हूँ कि मुसलमान हूँ, घाँची (तेली) हूँ कि ब्राह्मण हूँ ? लडका ७ साल का हो गया । अकबर पुछवाता है : ‘‘लडका क्या बोलता है ? बोलता नहीं कि मुझे कारागृह में क्यों डाला है ? मुझे बाहर निकालो...ऐसा कुछ बोलता है ?

            बोले : ‘‘उसको पता ही नहीं कि कारागृह क्या होता है और बाहर क्या होता है ।

            यह तो सुन-सुनकर मन मान लेता है कि यह कारागृह है, यह बाहर है, यह हमारी जाति और यह हमारा नाम है... । तुम्हारा चैतन्य इतना स्वच्छ, सूक्ष्म है कि उससे स्फुरित होनेवाले मन में कोई जैसा रंग (संस्कार) डाल देता है, मन उसी रंग से रँग जाता है । जैसे प्रकाश के आगे जिस रंग का कागज रख दो, प्रकाश उसी रंग का दिखता है, ऐसे ही मन में जैसे संस्कार डाल दो, व्यक्ति ऐसा ही अपने को मानने लग जाता है ।

            लडका ९-१० साल का हो गया । मैं मुसलमान हूँ या हिन्दू हूँ...कुछ बोलता ही नहीं । मैं लडका हूँ या लडकी हूँ...यह भी नहीं बोलता । तू लडका है या लडकी है यह भी सुनाया गया है । जब सुन-सुनकर अपने को लडका या लडकी मानते हो तो भगवान कहते हैं कि तू आत्मा है, तू परमात्मा का अविभाज्य स्वरूप है । यह बात सुनकर मान लो तो बेडा पार हो जायेगा !

            वह लडका ११ साल का हुआ । अकबर शाही पोशाक पहनकर उस कारागृह की खिडकियों के सामने से, दरवाजे के सरियों के निकट से गुजरने लगा । दायें से बायें जाता है, बायें से दायें जाता है । लडका उसे देख तो रहा है लेकिन घुटने नहीं टेक रहा है । लडका यूँ भी नहीं कह रहा है कि बादशाह की जय हो ! आप मुझे कारागृह से निकालिये । उस लडके  को पता ही नहीं कि बादशाह क्या होता है ! अकबर को एहसास हुआ कि उन सूफी संत के वचनों में गहरी सच्चाई है ।

            तो मानना पडेगा कि मन को जैसे संस्कार मिलते हैं ऐसा वह अपने को मानता है और जब मृत्यु का झटका आता है, उस समय मूच्र्छावस्था आती है तो वे संस्कार दब जाते हैं । फिर उनका कुछ अंश रह जाता है और दूसरा जन्म मिलता है ।

            जैसे सरदार पहले मनुष्य है बाद में सरदार है, सिंधी पहले मनुष्य है बाद में सिंधी है, ऐसे ही पहले आपका सत्यस्वरूप जीवन है बाद में यह शरीररूपी साधन है ।

            इतना आसान है जीवन ! इतना सरल है वह परमात्मा ! किन्तु साधन (शरीर) को मैं मानने से बुद्धि स्थूल हो गयी, समझ मोटी हो गयी इसलिए बडे-बडे भोग, बडे-बडे त्याग करने पर भी वास्तविक जीवन के दर्शन नहीं होते । वास्तविक तत्त्व का अनुभव करानेवाले महापुरुषों की शरण व सत्संग मिले तो अपने सहज स्वभाव आत्मा-परमात्मा का अनुभव हो जाय ।

अगर है शौक मिलने का तो कर खिदमत फकीरों की ।
ये जौहर नहीं मिलता अमीरों के खजाने में ।।

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू