सच्चा पुरुषार्थ।
कई बार प्रयत्न करने पर भी असफलता
मिले, फिर भी अपना पुरुषार्थ न छोड़े ऐसा कृतनिश्चयी साधक जीवन में अवश्य सफलता
पाता है ।
साधक के जीवन में कभी ऐसा भी अवसर आता है कि उसे अपने चारों ओर निराशा का
गहन अंधकार छाया हुआ दिखाई देता है । अपने दिल की बात कहकर अपना दिल खाली कर सके
ऐसा मौका नहीं मिलता है । फिर भी यदि उसका पुरुषार्थ शुभ के लिए होता है तो
प्रकृति की कोई घटना उसके जीवन में पुनः आशा एवं उत्साह का संचार कर देती है ।
सिद्धार्थ के जीवन में भी एक बार ऐसा प्रसंग आया था । ईश्वरप्राप्ति के लिए
सिद्धार्थ ने पत्नि-पुत्र, राज-पाट तक का त्याग करके जंगल का रास्ता पकड़ा था । कई
प्रकार की साधनाएँ की थीं, किन्तु लक्ष्य हासिल नहीं हो रहा था । सिद्धार्थ निराश
होकर सोच ही रहे थे कि ‘इसमें तो अच्छा है कि घर चला जाऊँ....’ इतने में
एकाएक उनकी निगाह पेड़ पर चढ़ते हुए एक नन्हें-से कीड़े पर पड़ी । उन्होंने देखा
कि पेड़ पर चढ़ता हुआ कीड़ा वायु के झोंके से नीचे गिर पड़ा । वह फिर से चढ़ने लगा
तो फिर गिर पड़ा.... ऐसा करते-करते वह दस बार चढ़ा और गिरा किन्तु फिर भी उसने
प्रयन्त नहीं छोड़ा और आखिरकार ग्यारहवीं बार चढ़ ही गया ।
यह दृश्य देखकर सिद्धार्थ को लगा कि ‘यह मात्र एक
सामान्न दृश्य ही नहीं वरन् मेरे लिए एक ईश्वरीय संकेत है’ । एक छोटा-सा कीड़ा दस-दस बार प्रयत्न करने
पर भी नहीं हारता है और सफलता प्राप्त करके ही दम लेता है तो मैं क्यों अपना
लक्ष्य छोड़कर कायरों की नाईं भागकर नश्वर राज्य सँभालूँ?’
सिद्धार्थ पुनः दृढ़ता से लग गये तो लक्ष्य को पाकर ही रहे । वे ही
सिद्धार्थ आज भी गौतम बुद्ध के नाम से लाखों-करोड़ों हृदयों द्वारा पूजे जा रहे
हैं ।
यदि तुम्हारा पुरुषार्थ शास्त्र-सम्मत हो, सद्गुरु द्वारा अनुमोदित हो, लक्ष्य के
अनुरूप हो तो सफलता अवश्य मिलती है । पुरुषार्थ तो कई लोग करते हैं ।
सुनी है एक कहानी एक बार चूहों की सभा हुई । चूहों के आगेवान ने कहाः “पुरुषार्थ ही
परम दैव है । पुरुषार्थ से ही सफलताएँ मिलती हैं । अतः अब हमें निराश होने की कोई
जरूरत नहीं है । जाओ, तुम सब पुरुषार्थ करके कुछ ले आओ । कोई भी खाली हाथ न आये ।”
सब चूहे सहमत हो गये औ दौड़ पड़े । एक चूहा मदारी के घर में घुस गया और एक
बाँस की पिटारी को कुतरना आरंभ किया । वह बाँस की पिटारी इतनी सख्त थी कि
कुतरते-कुतरते चूहे के मुँह से खून बह निकला, फिर भी उसने अपने पुरुषार्थ नहीं छोड़ा । प्रभात
होने तक बड़ी मुश्किल से एक छेद कर पाया । जैसे ही चूहा पिटारी में घुसा तो रातभर
के भूखे सर्प ने उस चूहे को अपना ग्रास बना लिया ।
ठीक इसी तरह मूर्ख, अज्ञानी मनुष्य भी सारा जीवन नश्वर वस्तुओं
को पाने के पुरुषार्थ में लगा देते हैं । किंतु अंत में क्या होता है ? कालरूपी सर्प
आकर चूहेरूपी जीव को निगल जाता है । ऐसे पुरुषार्थ से क्या लाभ ?
शास्त्र कहता है : पुरुषार्थ अर्थात्
पुरुषस्य अर्थः इति पुरुषार्थ । परम पुरुष परब्रह्म परमात्मा के लिए जो यत्न किया
जाता है वही पुरुषार्थ है । फिर चाहे जप-तप करो, चाहे कमाओ-खाओ और चाहे बच्चों की परवरिश
करो... यह सब करते हुए भी तुम्हारा लक्ष्य, तुम्हारा ध्यान यदि अखंड चैतन्य की ओर है तो
समझो कि पुरुषार्थ सही है । किन्तु यदि अखंड को भूलकर तुम खंड-खंड में, अलग-अलग
दिखनेवाले शरीरों में उलझ जाते हो तो समझो कि तुम्हारा पुरुषार्थ करना व्यर्थ है ।
पुरुषार्थ तो सभी कर रहे हैं । आज तक हम
सभी पुरुषार्थ करते ही आये हैं । ईश्वर ने हमको बुद्धिशक्ति दी है किन्तु उसका
उपयोग हमने जगत के संबंधों को बढ़ाने में किया । ईश्वर ने हमें संकल्पशक्ति दी है
किन्तु उसका उपयोग हमने जगत के व्यर्थ संकल्प-विकल्पों को बढ़ाने में किया । ईश्वर
ने हमें क्रियाशक्ति दी है किन्तु उसका उपजोग भी हमने जगत की नश्वर वस्तुओं को
पाने में ही किया है ।
किसीसे पूछो कि ‘ऐसे पुरुषार्थ से क्या पाया ?’ तो वह कहेगाः ‘मैंने
पुरुषार्थ किया । परीक्षा के दिनों में सुबह चार बजे उठकर पढ़ता था । मैं बी.ए. हो
गया.... मैं एम. ए. हो गया... बढ़िया नौकरी मिल गयी । फिर नौकरी छोड़कर चुनाव लड़ा
तो उसमें भी सफल हो गया और आज तक साधारण परिवार का लड़का पुरुषार्थ करके मंत्री बन
गया...’
फिर आप पूछो कि ‘भाई ! अब आप सुखी तो हो ?’ तो जबाव
मिलेगा कि ‘और सब तो ठीक है लेकिन लड़का कहने में नहीं चलता है तो फिक्र होती है....
रात को नींद नहीं आती है....’
यह क्या पुरुषार्थ का वास्तविक फल है ? बी.ए. एम. ए
करने की, पीएच.डी. करने की, चुनाव लड़ने की मनाही नहीं है किन्तु यह सब करने के साथ
आप एक ऐसे पद को पाने का भी पुरुषार्थ कर लो कि जिसे पाकर यदि आपकी सब धारणाएँ, सब मान्यताएँ
विपरीत हो जाएँ, सारी खुदाई तुम्हारे विरेध में खड़ी हो जाय, फिर भी आपके दिल का चैन न लूटा जा सके, आपका आनंद
रत्तीभर भी कम न हो सके । ...और वह पद है आत्मपद जिसे पाकर मानव सदा के लिए सब
दुःखों से निवृत्ति हो जाता है, जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए पार हो जाता है और
दुनिया का बड़े-से-बड़ा कष्ट, दुनिया का बड़े-से-बड़ा विरोध भी उसे कोई हानि नहीं
पहुँचा सकता है ।
आप आनंद पाने के लिए साज तो बजाते हो, गीत भी गाते
हो लेकिन गीत परमात्मा के लिए गा रहे हो कि संसार के लिए इस बात का जरा ख्याल रखना
। परमात्मा के लिए किया गया हर कार्य पुरुषार्थ हो सकता है किन्तु सांसारिक इच्छा
को लेकर की गयी परमात्मा की पूजा भी वास्तविक पुरुषार्थ नहीं हो सकती है ।
बेटे-बेटी को जन्म देना, पाल-पोसकर बड़ा करना, पढ़ाना-लिखाना एवं अपने पैरों पर खड़ा कर
देना... बस, केवल यही पुरुषार्थ नहीं है । इतना तो चूहा, बिल्ली आदि प्राणी भी कर लेते हैं । किन्तु
बेटे-बेटी को उत्तम संस्कार देकर परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर करना और खुद भी
अग्रसर होना- यही सच्चा पुरुषार्थ है ।
वेदान्त की नजर से, शास्त्रों की नजर से देखा जाय तो पुरुषार्थ का वास्तविक
फल यही है कि पूरी त्रिलोकी का राज्य तुम्हें मिल जाय फिर भी तुम्हारे चित्त में
हर्ष न हो और पडोसी तुम्हें नमक की एक डली तक देने के ले तैयार न हो इतने तुम समाज
में ठुकराये जाओ, फिर भी तुम्हारे चित्त में विषाद न हो ऐसे एकरस आत्मानंद में तुम्हारा
चित्त लीन रहे... यही सच्चा पुरुषार्थ है । भोलेबाबा कहते हैः
देहादि करते
कार्य हैं, आत्मा सदा निर्लेप है ।
यह ज्ञान
सम्यक होय जब, होता न फिर विक्षेप है ।।
मन इन्दियाँ
करती रहें, अपना न कुछ भी स्वार्थ है ।
जो आ गया सो
कर लिया, यह ही परम पुरुषार्थ है ।।
नहीं जागने
में लाभ कुछ, नहीं हानि कोई स्वप्न से ।
नहीं बैठने
से जाय कुछ, नहीं आये हैं कुछ यत्न से ।।
निर्लेप जो
रहता सदा, सो सिद्ध मुक्त कृतार्थ है ।
नहीं त्याग
हो नहीं हो ग्रहण, यह ही परम पुरुषार्थ है ।।
***************************
0 टिप्पणियाँ