वेदों में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता?

युगों से वेदों की अपरिवर्तनशीलता कैसे सुनिश्चित है, यह जानने के लिए ध्यानपूर्वक इस लेख को पढ़ें। हम उन अनेक विद्वानों के आभारी हैं, जिनके मूल स्त्रोत तो अज्ञात हैं परन्तु जिनके ज्ञान को इस लेख में प्रयुक्त किया गया है
वेदों को उनकी आरंभिक अवस्था में कैसे संरक्षित किया गया, इस पर यहाँ कुछ विश्लेषणात्मक और निष्पक्ष सुझाव प्रस्तुत किये गए हैं। वेदों को अपने विशुद्ध स्वरुप में बनाये रखने और उनमें किंचित भी फेर बदल की संभावना न होने के कारणों को हम यहाँ विस्तार से देखेंगे।
विश्व का अन्य कोई भी मूलग्रंथ संरक्षण की इतनी सुरक्षित पद्धति का दावा नहीं कर सकता है। हमारे पूर्वजों (ऋषियों ) ने विभिन्न प्रकार से वेद मन्त्रों को स्मरण करने की विधियाँ अविष्कृत कीं, जिनसे वेदमन्त्रों की स्वर-संगत और उच्चारण का रक्षण भी हुआ।
वेदों का स्वर-रक्षण
हमारे पूर्वजों ने नियमों के आधार पर यह सुनिश्चित किया कि मंत्र का गान करते हुए एक भी अक्षर, मात्रा या स्वर में फेरबदल न हो सके और मंत्र के गायन से पूर्ण लाभ प्राप्त हो सके। उन्होंने शब्द के प्रत्येक अक्षर को उच्चारित करने में लगनेवाले समय को निर्धारित किया और समय की इस इकाई या समय के अंतराल को 'मंत्र' कहा। वेद मन्त्रों को शुद्धस्वरुप में उच्चारित करने के लिए विधिवत श्वसनक्रिया के द्वारा शरीर के एक खास हिस्से में वांछित स्पंदन निर्माण करने की प्रक्रिया के विज्ञान को जिस वेदांग में बताया गया है, उसे 'शिक्षा' कहते हैं। यदि आप वैदिक मंत्र को संहिता में देखें तो आपको अक्षरों के पीछे कुछ चिन्ह मिलेंगे।
उदहारण के लिए निम्न छवि देखें:-
   
यह चिन्ह 'स्वर चिन्ह' कहलाते हैं। जो मन्त्रों की उच्चारण पद्धति को दर्शाते हैं। इन चिन्हों से यह पक्का हो जाता है कि वेद मन्त्रों में अक्षर, मात्रा, बिंदु, विसर्ग का भी बदलाव नहीं हो सकता है। परंपरागत गुरुकुलों में विद्यार्थी वेदमंत्रों के पठन में इन स्वरों के नियत स्थान को हाथ व सिर की विशिष्ट गतिविधि द्वारा स्मरण रखते हैं। अतः आप उन्हें वेदमंत्रों के पठन में हाथ व सिर की विशिष्ट गतिविधियाँ करते हुए देख सकते हैं। और यदि मंत्रपठन में अल्प- सी भी त्रुटी पाई गयी तो वे आसानी से ठीक कर लेते हैं। इसके अलावा अलग-अलग गुरुकुल, पठन की विभिन्न प्रणालियों में अपनी विशेषता रखते हुए भी स्वरों की एक समान पद्धति को निर्धारित करते हैं जिससे प्रत्येक वैदिक मंत्र की शुद्धता का पता उसके अंतिम अक्षर तक लगाया जा सके।
वेदों का पाठ-रक्षण

वेदमन्त्रों के शब्दों और अक्षरों को फेर बदल से बचाने के लिए एक अनूठी विधि अविष्कृत की गयी। जिसके अनुसार वेदमन्त्रों के शब्दों को साथ में विविध प्रकारों (बानगी) में बांधा गया, जैसे- "वाक्य", "पद", "क्रम", "जटा", "माला", "शिखा", "रेखा", "ध्वज", "दंड", "रथ" और "घन"। ये सभी एक वैदिक मंत्र के शब्दों को विविध क्रम-संचयों में पढ़ने की विधि को प्रस्तुत करते हैं।
कुछ वैदिक विद्वान "घनपठिन्" कहलाते हैं, जिसका मतलब है कि उन्होंने मंत्रगान की उस उच्च श्रेणी का अभ्यास किया है, जिसे "घन" कहते हैं। "पठिन्" का अर्थ है जिसने पाठ सीखा हो। जब हम किसी घनपठिन् से घनपाठ का गान सुनते हैं तो हम देख सकते हैं कि वे मंत्र के कुछ शब्दों को अलग-अलग तरीकों से लयबद्ध, आगे-पीछे गा रहें हैं। यह अत्यंत कर्णप्रिय होता है, मानों कानों में अमृतरस घुल गया हो। वैदिक मंत्र का माधुर्य घनपाठ में और भी बढ़ जाता है। इसी तरह, गान की अन्य विधियाँ जैसे क्रम, जटा, शिखा, माला इत्यादि भी दिव्यता प्रदान करतीं हैं। इन सभी विधियों का मुख्य उद्देश, जैसे पहले बताया गया है, यह सुनिश्चित करना है कि, वेदमंत्रों में लेशमात्र भी परिवर्तन न हो सके। वेदमंत्र के शब्दों को साथ-साथ इस तरह गूंथा गया है, जिससे उनका प्रयोग बोलने में और आगे-पीछे सस्वर पठन में हो सके। पठनविधि के किसी विशेष प्रकार को अपनाये बिना "वाक्य पाठ" और "संहिता पाठ" में मंत्रों का गान उनके मूल (प्राकृतिक ) क्रम में ही किया जाता है। "वाक्य पाठ" में मंत्रों के कुछ शब्दों को एकसाथ मिलाकर संयुक्त किया जाता है। जिसे "संधि" कहते हैं। तमिल शब्दों में भी संधि होती है, परन्तु अंग्रेजी में शब्द एकसाथ मिले हुए नहीं होते। तेवरम्, तिरुक्कुरल्, तिरुवच्कं, दिव्यप्रबन्धन और अन्य तमिल कार्यों में संधियों के कई उदहारण हैं। तमिल की अपेक्षा भी संस्कृत में एक अकेला शब्द कम पहचाना जाता है। संहिता पाठ के बाद आता है पदपाठ। पदपाठ में शब्दों का संधि-विच्छेद करके लगातार पढ़ते हैं। इसके पश्चात क्रमपाठ है। क्रमपाठ में मंत्र के शब्दों को पहला-दूसरा, दूसरा-तीसरा, तीसरा-चौथा और इसी तरह अंतिम शब्द तक जोड़े बनाकर (१-२, २-३, ३-४, ..) याद किया जाता है।
दक्षिण के प्राचीन लेखों से पता चलता है कि कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्बंधित स्थान के उल्लेख में "क्रमवित्तान" उपाधि को नाम से जोड़ा गया है। "क्रमवित्तान" "क्रमविद" का तमिल स्वरुप है। ठीक उसी प्रकार "वेदवित्तान", "वेदविद" का है। इन धार्मिक लेखों से ज्ञात होता है कि अतीत में ऐसे वैदिक विद्वान, दक्षिण भारत में सर्वत्र मिलते थे। (ध्यान दें कि दक्षिण भारत का वैदिक परम्पराओं के संरक्षण में महान योगदान है। इतिहास के लम्बे संकटमय काल के दौरान, जब उत्तर भारत पश्चिम एशिया के क्रूर आक्रान्ताओं और उनके वंशजों के बर्बर आक्रमणों से अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत था, तब दक्षिण भारत ने वेदमन्त्रों का रक्षण किया। वैदिक गुरुकुलों की यह परंपरा आज भी अनवरत पाई जाती है। )
जटापाठ में पहले शब्द को दूसरे के साथ, दूसरे को तीसरे के साथ और इसी क्रम में आगे-पीछे जाते हुए (१-२, २-३, ३-४, ..), सम्पूर्ण मंत्र को गाया जाता है। शिखापाठ में जटा की अपेक्षा, दो के स्थान पर तीन शब्द सम्मिलित होते हैं और क्रमानुसार (१-२-३, २-३-४, …) आगे-पीछे जाते हुए, सम्पूर्ण मंत्रगान होता है। इन पठन विधियों की अपेक्षा घनपाठ अधिक कठिन है। घनपाठ में चार भेद होते हैं। इसमें मंत्र के शब्दों के मूल क्रम में विशिष्ट प्रकार के फेर बदल से विविध क्रमसंचयों में संयोजित करके आगे-पीछे गाया जाता है। इन सबको विस्तारपूर्वक अंकगणित की सहायता से समझा जा सकता है।
वेदों का नाद सभी अनिष्टों से विश्व की रक्षा करता है। जिस तरह जीवनरक्षक औषधि को संरक्षित करने के लिए प्रयोगशाला में हर किस्म की सावधानी बरती जाती है। इसी तरह हमारे पूर्वजों ने भी गान की विधियों का अविष्कार, श्रुतियों की ध्वनी को हेर-फेर और तोड़-मरोड़ से बचाने के लिए ही किया है। संहिता और पद पाठ, "प्रकृति पाठ"' (गान की प्राकृतिक विधि) कहलाते हैं। क्योंकि इसमें शब्दों का पठन एकबार ही उनके प्राकृतिक क्रम (मूल स्वरुप) में किया जाता है। अन्य विधियों का समावेश "विकृति पाठ"' (गान की कृत्रिम विधि) के वर्ग में होता है। क्रमपाठ में शब्दों को उनके नियमित प्राकृतिक क्रम (एक-दो-तीन) में ही प्रस्तुत किया जाता है। उसमें शब्दों के क्रम को उलटा करके नही पढ़ा जाता, जैसे पहला शब्द- दूसरे के बाद और दूसरा- तीसरे के बाद (२-१,३-२,—-) इत्यादि। अतः उसका समावेश पूर्णतया विकृति पाठ में नहीं होता है। क्रमपाठ को छोड़कर, विकृति पाठ के आठ प्रकार हैं, जो सहजता से याद रखने के लिए, इस छंद में कहे गए हैं:-
जटा माला शिखा रेखा ध्वज दण्डो रथो घनः।
इत्यस्तौ -विक्र्तयः प्रोक्तः क्रमपुर्व महर्षिभिः।।
इन सभी गान विधियों का अभिप्राय वेदों की स्वर-शैली और उच्चारण की शुद्धता को सदा के लिए सुरक्षित करना है। पदपाठ में शब्द मूल क्रम में, क्रमपाठ में दो शब्द एकसाथ और जटापाठ में शब्द आगे-पीछे जाते हुए भी, संख्या में अनुरूप होतें हैं। सभी पाठ विधियों में शब्दों की संख्या को गिनकर आपस में मिलान किया जा सकता है। और यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि शब्दों के मूल स्वरुप में कोई कांट-छांट नहीं हो सकती है।
विविध गान विधियों के लाभ को यहाँ छंद में दिया गया है :-
संहितापाठमात्रेण यत्फलं प्रोच्यते बुधैः
पदु तु द्विगुणं विद्यत क्रमे तु चा चातुर्गुनं
वर्णक्रमे सतगुनं तयन्तु साहस्रकं

हमारे पूर्वजों ने बहुत सावधानीपूर्वक यह सुनिश्चित किया कि वेदों की ध्वनी में लेशमात्र भी परिवर्तन न हो। इसीलिए (इसको ध्यान में रखते हुए), आधुनिक शोधकर्ताओं द्वारा हमारे धर्मग्रंथों के रचनाकाल को निर्धारित करने के लिए, शब्दों की ध्वनी में कैसे बदलाव होते गए यह पता लगाने का प्रयास करना निरर्थक ही है।
अधिक क्या कहा जाये, दक्षिण भारत में तो आज भी ऐसी विशिष्ट पाठशालाएं हैं, जहाँ वेद मंत्र विभिन्न साधनों से कंठस्थ करवाए जाते हैं। और यदि अलग-अलग पाठशालाओं में कंठस्थ करवाए गए मन्त्रों को तुलनात्मक रूप से देखें तो उन में एक भी अक्षर या शब्दांश का अंतर नहीं मिलेगा। स्मरण रखिये, हम लाखों शब्दांशों की बात कर रहे हैं !!! और फिर भी कोई अंतर नही। इसीलिए वैदिक दर्शन के तीखे आलोचक मैक्समूलर को भी यह कहना पड़ा कि संरक्षण की ऐसी विश्वसनीय और आसान पद्धति, विश्व के महानतम आश्चर्यों और चमत्कारों में से एक है।
घन पाठ का एक उदाहरण प्रस्तुत है :-
यहाँ इस बात की हल्की सी झलक मिलती है कि कैसे वेदों को उनकी विशाल विषयवस्तु (ऋग्वेद और यजुर्वेद में क्रमशः १५३,८२६ और १०९,२८७ शब्द हैं ) के बावजूद पीढ़ी दर पीढ़ी केवल मौखिक प्रसारण से सुरक्षित रखा गया है। हम यजुर्वेद से लिए गए एक वचन को स्वरों के बिना दे रहें हैं, मूल संहिता और पदपाठ के स्वरुप में। फिर शब्दों के क्रम को घनपाठ में भी दिया गया है। जिस पंडित ने एक वेद के संपूर्ण घनपाठ का अभ्यास कर लिया हो (इस मुकाम तक पहुँचने में पूरे तेरह वर्षों का समय लगता है), वह घन-पाठी कहलाते हैं।
घन-पठन की प्रक्रिया का नियम :-
यदि वाक्य में शब्दों का मूल क्रम यह हो,
१ / २ / ३ / ४ / ५
तो घन पाठ इस तरह होगा :-
१ २ / २ १ / १ २ ३ / ३ २ १ / १ २ ३ /
२ ३ / ३ २ / २ ३ ४ / ४ ३ २ / २ ३ ४ /
३ ४ / ४ ३ / ३ ४ ५ / ५ ४ ३ / ३ ४ ५ /
४ ५ / ५ ४ / ४ ५ /
५ इति ५।
इसे निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है :-
संहिता पाठ =
एषां पुरुषाणां -एषां पशूनां म भेर -म रो -मो एषां किन्चान अममत //
अर्थ: हे परमेश्वर ! आप हमारे इन पुरुषों और पशुओं को भयरहित कीजिये। ये कभी भी पीडित ना हों, ना ही इनमें स्वास्थ्य का अभाव हो।
पदपाठ =
एषां /पुरुषाणां /एषां /पशूनां /म /भेः /म /अराः /मो -इति -मो /एषां /
किं /चन /अममत /अममद -इत्य -अममत /
नोट :- यहाँ नौवां और अंतिम विराम बारीकी को धयान में रखते हुए विशेषज्ञों के लिए दिया गया है, जिसे चाहें तो आप अनदेखा कर सकते हैं।
सिवाय आधे विराम के , जिसे ' / ' से दर्शाया गया है, घन-पठन(स्वर-रहित; स्वरों के साथ सुनना अत्यंत हर्ष प्रदान करेगा.) निरंतर पठन है यहाँ ' समास चिन्ह (-) ' व्याकरण के जानकारों के लिए दिए हैं। पठन पर इसका प्रभाव नहीं होता है।
घन पाठ =
एषां -पुरुषाणां -पुरुषाणां -एषां -एषां पुरुषाणां -एषां -एषां
पुरुषाणां -एषां -एषां पुरुषाणां -एषां /
पुरुषाणां -एषां -एषां पुरुषाणां पुरुषाणां -एषां पशूनां
पशूनां -एषां पुरुषाणां पुरुषाणां -एषां पशूनां /
एषां पशूनां पशूनां -एषां -एषां पशूनां -म म पशूनां -एषां -एषां पशूनां -म /
पशूनां -म म पशूनां पशूनां -म भेर -भेर -म पशूनां पशूनां -म भेः /
म भेर -भेर -मम भेर -मम भेर -मम भेर -म /
भेर -मम भेर -भेर -मरो आरो म भेर -भेर्म अराः /
म रो आरो मम रो मोमो आरो म म रो मो /
आरो मो मो आरो आरो मो एषां -एषां मो आरो आरो मो एषां /
मो एषां -एषां मो मो एषां किं किं -एषां -मो मो एषां किं / मो इति मो /
एषां किंकिं -एषामेषं किं -चान चान किं -एषां -एषां किं -चान /
किं चान चान किं किं चानममद -अममत चान किं किं चानममत /
चानममद -आममक् -चान चानममत /
अममद -इत्यममत /

यहाँ उल्लेखनीय है कि संस्कृत में शब्दों का क्रम महत्व नहीं रखता।यदि अंग्रेजी वाक्य को अलग-अलग क्रम से रखा जाय, जैसे
Rama vanquished ravana
तो इसका पाठ इस तरह होगा
Rama vanquished vanquished Rama Rama vanquished Ravana
Ravana vanquished Rama Rama vanquished Ravana,.. और इसी तरह से
यहाँ इसकी अनर्थकता दिखायी देती है। संस्कृत में ऐसी असंगति उत्पन्न नहीं होती। एक घनपाठ में प्रथम और अंतिम पदों को छोड़कर बाकि के प्रत्येक पद का कम से कम तेरह बार पुनरावर्तन होता है। (आप ऊपरलिखित 'पशूनां ' शब्द से इसकी जाँच कर सकते हैं.)
इसी तरह, वेदों का घन पाठ वेद के प्रत्येक मंत्र का तेरह बार पाठ होने के बराबर है. और तेरह बार पाठ की पुनरावृत्ति से जो लाभ मिलता है, उसके बराबर है.
सारांशत :
सभी वेदमंत्रों की संभाल बिना किसी कागज़ स्याही के ही की गयी है। (पाश्चात्य गणना के अनुसार, अब तक कम से कम तीन सहस्त्राब्दियाँ बीत चुकी हैं और इस से पुराणी कोई पुस्तक नहीं।) यह भारत की भाषा-विज्ञान में असाधारण महान सिद्धी है। जिसके लिए भारतवर्ष बाकायदा गर्व महसूस कर सकता है। वेद का साहित्य 'काव्य' और 'गद्य' की विविधतापूर्ण संरचनाओं से युक्त है। जिसे कंठस्थ करके याद रखा गया है। गुरु के द्वारा मौखिक रूप से प्रत्येक शब्द और शब्दों के संयोजन सहित शुद्ध मंत्रोच्चारण (सस्वर) का अभ्यास कराया गया है। गुरु से एक बार सुनकर शिष्य द्वारा उचित स्वरुप में दो बार दोहराय जाने से वे अविरत मंत्र पठन करना सीख जाते हैं। वैदिक अवतरणों के अविरत पठन का नाम संहिता पाठ है। नौ विभिन्न प्रविधियों या सस्वर उच्चारण (पठन) की पद्धतियों के कौशल को उपयोग में लाकर मूल पाठ को अक्षुण्ण (बरक़रार ,सुरक्षित ) रखा गया है। प्रथम है पदपाठ। पद का अर्थ है शब्द, और पाठ का अर्थ है पढ़ना। पदपाठ में प्रत्येक शब्द को केवल अलग-अलग पढ़ते हैं। मंत्र के संहिता पाठ को पदपाठ में परिवर्तित करते समय स्वरों में जो बदलाव होते हैं, वह अत्यंत जटिल (तांत्रिक ,technical) जरूर होते हैं, किन्तु उनका वहाँ विशिष्ट महत्त्व और मतलब है। (यहाँ संस्कृत व्याकरण महत्त्वपूर्ण होगा।) इसके अतिरिक्त सस्वर पठन की आठ अन्य प्रविधियां भी हैं। जिनका एकमात्र प्रयोजन मूल संहिताओं को एक भी अक्षर, मात्रा या स्वर की मिलावट और हटावट से बचाना है। वेदों की सभी पठन विधियों में स्वर का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन आठ पठन विधियों को क्रम, जटा, घन, माला, रथ, शिखा, दंड और रेखा कहा जाता है। प्रत्येक विधि में शब्दों के पठन की प्रक्रिया को मूल क्रम में विशिष्ट तरीके के परिवर्तन से क्रम-संचय करके निश्चित किया गया है। इन सब विस्तृत और प्रबुद्ध पद्धतियों ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि मानवता के प्रथम ग्रंथ- वेद संहिताएं आज भी हमें विशुद्ध मूल स्वरुप में यथावत(वैसे की वैसे ) उपलब्ध हैं