आत्मबल ही वास्तविक बल है।
जो बलवान है, प्राणशक्ति से युक्त है उसके लिए पराये भी अपने हो जाते हैं जबकि दुर्बलों के लिए अपने भी पराये हो जाते हैं।
वीरभोग्या वसुन्धरा।
बल ही जीवन है। निर्बलता ही मौत है। समस्त बलों का उदगमस्थल है आत्मा। आत्मा के कारण ही सब प्रिय लगता है और सफलता, सौन्दर्य, माधुर्य, आनंद आदि भी आत्मा आभा से ही निखरते हैं। इस असत्, जड़, दुःखरूप, परिवर्तनशील और क्लेशों से परिपूर्ण जगत में भी उन्हीं लोगों रस, आनंद, माधुर्य आदि मिलता है, जिनके जीवन में जगमगाते हुए आत्मभाव का प्रकाश है।
जिन वस्तुओं से आपका अपनत्व है वे ही वस्तुएँ प्यारी लगती है। ʹअपना मकानअपनी गाड़ी…. अपना बेटा…ʹ आदि क्यों प्यारे लगते हैं ? क्योंकि उनमें आपका अपनत्व है। दुनियाभर के प्रिय व्यंजन आपके समक्ष रख दिये जाते हैं, फिर भी यदि आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तो वे सारे व्यंजन आपको फीके लगेंगे, नीरस लगेंगे क्योंकि जिह्वा में अपना रस नहीं है। जिह्वा में जब अपनत्व , चैतन्य का रस होता है, तभी व्यंजन रसमय लगते हैं नहीं तो उन जड़ व्यंजनों में रस कहाँ ? इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के साथ भी है।
जिन चीजों को भोगने योग्य मानकर तुम अपनी आभा, अपनी ऊर्जा, अपने आत्मचैतन्य की शक्ति बिखेर देते हो, उन्हीं चीजों के इन बाह्य आकर्षणों की अपेक्षा, उनमें जो आत्मसत्ता है उसका ख्याल रखकर अपनी आत्मसत्ता का विकास करो तो तुम्हारा बल बढ़ जायेगा।
एक समय था जब बालक माँ की गोद से पलभर भी दूर नहीं होना चाहता था। जब माँ जवान थी और बालक लाचार था, उसे माँ से पोषण मिलता था, तब वह बार-बार माँ की गोद में पहुँच जाता था। माँ की गोद में पाने के लिए चीखता-पुकारता था। लेकिन वही बालक बड़ा होकर माँ को बूढ़ी पाता है और अब माँ से उसका स्वार्थ नहीं सिद्ध होता तो वह माँ की और देखता तक नहीं। माँ के पास कुछ देर बैठने की उसे फुर्सत तक नहीं क्योंकि अब जिससे स्वार्थ सिद्ध होता है वह पत्नी अब मिल चुकी है। यह सारा संसार ही अपने स्वार्थ से एक-दूसरे के साथ जुड़ा है। तुलसीदासजी ने भी कहा हैः
सुर नर मुनि सबकी यह रीति।
स्वारथ लागहिं करहिं सब प्रीति।।
जितनी-जितनी तुम्हारी प्राणशक्ति उस आत्मदेव से संचालित होती है, जितने-जितने तुम प्राणवान हो, तेजवान हो, ओजवान हो उतने-उतने लोग तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराते हैं। बुढ़ापे में प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, ओज-तेज कम हो जाता है तो अपने भी पराये होने लगते हैं। नौकरी में से भी रिटायरमैंण्ट दे दिया जाता है।
जिसके कारण तुम्हारी कीमत है, उस आत्मसत्ता की जानोगे, उसे जितना अधिक अपना मानोगे और उसमें विश्रांति पाओगे उतने ही तुम महानता के शिखरों को छू सकोगे। नहीं तो थोड़ी-बहुत शक्ति लाकर उसे जगत की बाह्य चकाचौंध में ही खर्च कर दिया तो फिर बुढ़ापे में तुम्हारी खैर नहीं, मृत्यु के बाद तुम्हारी खैर नहीं…. न जाने प्रकृति फिर किस शरीर में पटक कर तुम्हें अनाथ कर दे ? इसलिए कृपा करके प्राणबल रहते ही उस सर्व-सौन्दर्य के सर्वसत्ता के उदगम स्थान को जानकर उसके साथ एक हो जाओ। इसी में तुम्हारा भला है, कुटुम्ब का भला है, देश का भला है।
ʹमेग्नेटʹ से जुड़ी हुई प्लेट से लोहे के कण चिपके रहते हैं, लेकिन ज्यों ही मेग्नेट का आश्रय प्लेट ने छोड़ा तो लोहे के कण भी प्लेट को छोड़ देंगे। ऐसे ही मेग्नेटों का मेग्नेट तुम्हारा आत्मदेव है और यह जड़ शरीर जब तक उस मेगनेट के करीब है तब तक बाहर के व्यक्ति, बाहर की वस्तुएँ, बाहर का वातावरण आपके साथ सहयोग करता है। जैसे जैसे उस मेग्नेट से तुम्हारी प्राणशक्ति दूर होती जाती है वैसे-वैसे बाहर के व्यक्ति वस्तु वातावरणरूपी लोहे के कण भी तुमसे दूर होते जायेंगे।
धिक् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलम्।
विश्वामित्र को अनुभव हुआ कि क्षात्रबल को धिक्कार है। आत्मबल ही वास्तविक बल है। जवानी में क्षत्रियबल जरा दिखता है किन्तु बुढ़ापा आते ही बूढ़े राजा का राज्य छीन लिया जाता है। बुढ़ापा आते ही नौकर भी मुकरने लगते हैं और पड़ोसी भी आपकी जमीन जागीर पर निगाह डालने लगते हैं, आपके अपने कुटुम्बी भी आपका अधिकार छीनने की ताक में रहते हैं।
……… तो मानना पड़ेगा कि जीवनशक्ति जिस जीवनदाता से आती है उसी जीवनदाता को पाने में लगाना ही बुद्धिमत्ता है, अन्यथा अज्ञानता है।
शारीरिक स्वास्थ्य अर्थात् शारीरिक बल, मानसिक प्रसन्नता अर्थात् मनोबल एवं बौद्धिक योग्यता अर्थात् बौद्धिक बल ये जितने अधिक होंगे, जितनी आपकी प्राणशक्ति सूक्ष्म होगी और उस आत्मा के साथ आपकी तदाकारता होगी, उतने ही आप इस संसार नंदनवन की नाई देख सकेंगेआप उसी ब्रह्म परमात्मा के विषय में जानो, उसी का चिंतन करो एवं उसी में विश्रांति पाओ ताकि आपकी मति को ऐसा बल मिले कि आपकी मति ʹमतिʹ न बचे, ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाये। ʹऋतʹ अर्थात् ʹसत्यʹ सत्य से पूर्ण आपकी प्रज्ञा हो जाये
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर