साँर्इं श्री लीलाशाहजी की अमृतवाणी।
शुद्ध चित्तवाले
वैराग्यवान को सद्गुरु जगाते हैं :
जिस
मनुष्य ने पूर्वजन्म में निष्काम कर्म किये हुए हैं, उसका इस जन्म
में आत्मा से प्रेम होता है और वह दुनिया के पदार्थों को तुच्छ समझता है । ऐसे
वैराग्य से ही हृदय शुद्ध होता है और चित्त को शांति प्राप्त होती है ।
जैसे बारूद पहले विद्यमान होगा तो
विस्फोट के लिए उसे केवल तीली देने की आवश्यकता होती है, वैसे
जो वैराग्यवान, शुद्ध चित्तवाला है उसे सद्गुरु अपने सत्-उपदेश
से आत्मस्वरूप में जगाते हैं ।
उस मार्ग पर चलनेवाला
दृढनिश्चयी व पवित्र बुद्धिवाला होता है :
आत्मज्ञान
के लिए भगवत्कृपा, सद्गुरु की दया और आज्ञापालन में अपनी तत्परता
की आवश्यकता है । ये मिलें तो बस, बेडा ही पार ! उपासना और निष्काम कर्म
से अंतःकरण शुद्ध होता है और भगवत्कृपा होती है । सद्गुरु का उपदेश देना ही उनकी
दया है । उन उपदेशों पर आचरण किया जाय । वे जो मार्ग बताते हैं उस पर चलनेवाला
दृढनिश्चयी, पवित्र बुद्धिवाला होता है ।
भजन्ते मां दृढव्रताः । (गीता : ७.२८)
सत्शास्त्रों और
सद्गुरु की कृपा से होते हैं आवरण भंग :
आवरण
का अर्थ है, ‘पूरा ठीक न समझना । उसका शाब्दिक अर्थ है ‘पर्दा
। इसके दो भाग हैं - पहला असत्त्वापादक आवरण अर्थात् ‘भगवान
है नहीं इस प्रकार भगवान के अस्तित्व में विश्वास नहीं होना और दूसरा है अभानापादक
आवरण अर्थात् परमात्मा का भान नहीं बने रहना । पहला आवरण परोक्ष ज्ञान से अर्थात् ‘परमात्मा
सत्-चित्-आनंदस्वरूप है । - ऐसा दृढ निश्चय होने से दूर होता है और दूसरा आवरण
अपरोक्ष ज्ञान से दूर होता है अर्थात् ‘मैं हूँ
(नाम-रूप आदि से रहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप का चिंतन) - यह अभानापादक आवरण की
निवृत्ति कराता है । ये दोनों ज्ञान सत्शास्त्रों और सद्गुरु की कृपा से होते हैं
।
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