स्तरहीन प्रदूषित हिंदी - प्रभावशाली मानसिक गुलामी और निरीह
हिन्दी का संघर्ष।
जब अंग्रेज
इंग्लैंड छोड़कर पूरे विश्व में फैले, तो अपने साथ
पूरी दुनिया में अंग्रेजी भाषा और ईसाई धर्म को भी लेकर गए। जहां भी ब्रिटिश लोगों
ने ब्रिटिश उपनिवेशों की स्थापना की, वहां उन्होंने
अंग्रेजी भाषा और ईसाई धर्म का विरवा भी रोपा। यह अलग बात है कि ब्रिटिश लोग हर
जगह अंग्रेजी भाषा की स्थापना में तो सफल रहे, लेकिन ईसाई धर्म
को नहीं। अफ्रीकी देशों में तो वे ईसाईयत का फैलाव करने
में भी सफल हुए, किन्तु भारत में नहीं। अंग्रेजों के प्रयासों
के कारण ही, आज दुनिया के लगभग 60
देशों में अंग्रेजी सहायक आधिकारिक भाषा है। ये ऐसे सभी ऐसे देश हैं जहां ब्रिटिश
उपनिवेश स्थापित किए गए थे। किसी देश ने अपनी इच्छा से अंग्रेजी भाषा को स्वीकार
नहीं किया, हर जगह अंग्रेजी उन लोगों पर लादी गई, क्योंकि
स्थानीय भाषाओं और संस्कृति को नष्ट करना शासकों की प्राथमिकता में रहा। यह
दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वंत्रत्र भारत में, अब भी अनेक
मानसिक रूप से दास हैं, जो पूर्व-औपनिवेशिक स्वामी की भाषा
चाहते हैं। इतना ही नहीं, ऐसे लोग हिंदी भाषा में उचित हिंदी
शब्द उपलब्ध होते हुए भी, अपने पूर्व-औपनिवेशिक स्वामी की भाषा
के शब्द समाहित करना चाहते हैं। हैरत की बात है कि अंग्रेज लोग दुनिया भर में अपनी
अंग्रेजी भाषा फैलाते हैं, जबकि कई मानसिक गुलाम भारत में अपनी
मातृभाषा हिंदी को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
भौतिक रूप से
भारत में रहने वालों की तुलना में विदेशों में रहने वाले भारतीय कभी-कभी कई बातों
को अधिक स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ होते हैं, क्योंकि वे
दूसरे देशों में क्या हो रहा है, यह देख समझ पाते हैं। कई बार तो विदेश
में रहने वाला व्यक्ति, भारत में रहने वाले गुलाम मानसिकता के
भारतीय से कहीं ज्यादा भारतीय मामलों का जानकार होता है। जब वे देखते हैं कि
विदेशी अपनी भाषा और संस्कृति के संवर्धन के लिए कितना प्रयत्न कर रहे हैं, तो
वे भी प्रेरित होते हैं। दूसरे देशों की बात जाने दें, आइये
एक भाषा फ्रेंच पर ध्यान केंद्रित करें। एक अध्ययन के अनुसार दुनिया भर में रहने
वाला हर फ्रेंच व्यक्ति, फ्रेंच भाषा की शुद्धता बनाए रखने के
लिए कड़ी मेहनत करता है। उसी प्रकार एक भारतीय भी विदेश में रहकर हिंदी और भारत की
सेवा कर सकता है। विदेशों में रहने के दौरान कई देशभक्त लोग ऐसा कर भी रहे हैं।
विदेशों में रहने वाले लोग हर साल भारत को अरबों डॉलर भेजते हुए भारत की
अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देते हैं।
अब कुछ लोगों के
ज्ञान को देखें जो कहते हैं कि, "शुद्ध हिंदी जैसी कोई चीज ना तो है और
न कभी थी "। उनकी जानकारी के लिए 1 9 50 और
उन्नीस साठ के दशक में अखिल भारतीय रेडियो पर शुद्ध हिंदी थी। यह वह समय था, जब
ऑल इंडिया रेडियो पर कोई फिल्मी गाने नहीं थे। लेकिन जैसे ही दूरदर्शन प्रारम्भ
हुआ, हिंदी को विकृत किया जाना शुरू हो गया। अंग्रेजी के संक्षिप्त शब्दों
का प्रयोग हिन्दी में करने की प्रवृत्ति विकसित हुई। ये संक्षेप इतने कठिन या
असामान्य होते हैं कि कई बार तो अंग्रेजी जानने वाले लोग भी उन्हें नहीं समझ पाते।
अब मीडिया लोक में आमतौर पर उपयोग किया जाने वाला शब्द देखिये - जीएसटी की एबीसीडी। अब
आप ही बताईये कि हिंदी में इस प्रकार का प्रयोग करने का मतलब क्या है? क्यों
हिंदी मीडिया यह नहीं कह सकती – “पदार्थ और सेवा कर का क ख ग” ? सी
एम या पी एम के स्थान पर पूरे शब्द, मुख्यमंत्री या
प्रधान मंत्री क्यों नहीं बोले जा सकते ?
इसका मूल कारण
यह है कि अधिकांश मीडियाकर्मी ईसाई, यूरोपीय लोगों, बहुराष्ट्रीय
कंपनियां, और यहां तक कि मुसलमानों के वेतन भोगी हैं, अंग्रेजी
और उर्दू शब्दों को हिंदी में समाहित कर भारत में प्रचलित और लोकप्रिय बनाना चाहते
हैं। हिंदी फिल्म उद्योग को प्रभावित करने वाले माफिया हिंदी फिल्मों में हिंदी
शब्दों से ज्यादा उर्दू शब्द का इस्तेमाल योजनाबद्ध करवाते हैं। उन्होंने हिंदी
शब्दों की तुलना में उर्दू शब्द अधिक लोकप्रिय बनाये हैं। हिंदी फिल्मों ने दुनिया
में हिंदी भाषा की तुलना में उर्दू की ज्यादा सेवा की है। यहाँ तक कि पाकिस्तानी
फिल्मों की तुलना में, हिंदी फिल्मों से दुनिया भर में उर्दू
का प्रसार अधिक हुआ है। हिन्दी फिल्मों के प्रारम्भ में कलाकारों की जानकारी भी
हिंदी में नहीं दी जाती, जबकि यह सर्वत्र प्रवृत्ति है कि जिस
भाषा में फिल्म बनती है, उसी भाषा में कलाकारों की जानकारी
प्रसारित की जाती है।
हिन्दी मीडियाकर्मी हिन्दी
के स्थान पर अंग्रेजी और उर्दू के प्रसार में संलग्न हैं।
यदि कुछ लोग और
संगठन हिंदी को विकृत कर नष्ट करना चाहते हैं, तो क्या
हिंदीभाषियों का कर्तव्य नहीं है, कि ऐसे लोगों का विरोध करें और हिंदी
भाषा की शुद्धता और पवित्रता बनाए रखने का प्रयास करें। यदि हिंदी पचास और साठ के
दशक में शुद्ध थी, तो यह स्थिति पुनः क्यों नहीं आ सकती ? जो
लोग ऐसा कहते हैं, कि शुद्ध हिंदी जैसी कोई चीज नहीं है, वे
यातो हिन्दी जानते ही नहीं हैं, या हिन्दी विरोधी हैं। यह
प्रभावशाली मानसिक गुलामी और निरीह हिन्दी का संघर्ष है।आप किसका साथ देंगे ?
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