गुरु और सद्गुरु

            - पूज्य बापूजी
            गुरु और सद्गुरु में फर्क है । गुरु तो शिक्षक हो सकता है, मार्गदर्शक हो सकता है, केवल सूचनाएँ दे सकता है, किताबें पढ़ा सकता है, आत्मानुभव नहीं करा सकता लेकिन सद्गुरु बिना बोले भी सत्शिष्य को आत्मज्ञान का रहस्य समझा सकते हैं और सत्शिष्य बिना पूछे भी समझ सकता है ।

गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ।। (श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् : 12)

            सद्गुरु में वह प्रभाव होता है । साधक, शिष्य में से जब हम सत्शिष्य बनते हैं तब सद्गुरु कभी-कभार मौन निगाह से भी हमारे प्रश्नों का उत्तर हमारे चित्त में भर देते हैं । शिष्य पूछता नहीं और सद्गुरु बोलते नहीं फिर भी सत्शिष्य की शंकाओं का समाधान हो जाता है । ऐसे सद्गुरुओं को जितना दो उतना कम है और जो भी श्रद्धा से दिया वह उनको बहुत लगता है । वे महापुरुष आत्मतृप्त होते हैं ।
            हम अपने को कृतघ्नता की खाई में न गिरायें इसलिए हम कुछ-न-कुछ देकर कृतज्ञता का एहसास करते हैं । जहाँ प्रेम होता है वहाँ दिया जाता है । अब तुम्हारे एक लोटे पानी की क्या आवश्यकता है शिवजी को ? लेकिन कुछ-न-कुछ दिये बिना संकल्प साकार नहीं होता, भाव उभरता नहीं । प्रेम दिये बिना मानता नहीं है और अहंकार लिये बिना मानता नहीं है ।
            यहाँ सद्गुरु-शिष्य का संबंध लौकिक दिखते हुए भी उसमें अलौकिक प्रेम है, अलौकिक ज्ञान है, अलौकिक त्याग है । शिष्य अपने जीवन में से कुछ बचा-धचा के गुरु को अर्पण करता है । उनकी दैवी सेवा में तन-मन-धन से लग जाता है । और सद्गुरु ने गुरु-परम्परा से जो अखूट खजाना पाया है उसे वे खुले हाथ लुटाने को दिन-रात तत्पर होते हैं, यहाँ दोनों का प्रेम और त्याग छलकता है ।

शिष्य को ऐसा चाहिए कि गुरु को सब कुछ दे ।
गुरु को ऐसा चाहिए कि शिष्य का कछु न ले ।।

            सद्गुरु लेते हुए दिखते हैं लेकिन शिष्यों के लिए लगा देते हैं । लेते हैं तब भी उनकी पुण्याई के लिए और उससे व्यवस्था करते हैं तो उनकी आध्यात्मिक लक्ष्यप्राप्ति की यात्रा के लिए । ऐसे सद्गुरु आत्मज्ञान के अथाह दरिया होते हैं । ऐसे सद्गुरु शाब्दिक या स्कूली ज्ञान में चाहे अँगूठाछाप हों फिर भी आत्मज्ञान में वे गुरुओं के गुरु हैं । संत कबीरजी जो बोले वह बीजकबन गया, रामकृष्णजी जो बोले वह वचनामृत बन गया, नानकजी और उनके प्यारे जो बोले हैं वह गुरुग्रंथ साहिबबन गया । ऐसे महापुरुष अनुभवसम्पन्न वाणी से बोलते हैं ।
            शिष्य वह है जो सद्गुरु-ज्ञान को बढ़ाता है, सद्गुरु के अनुभव को आत्मसात् करता है । सिद्धांत आगे बढ़ता जाता है, प्रयोग चालू रखा जाता है... यही गुरुसेवा है । सद्गुरु-पूजा सत्य की पूजा है, आत्मज्ञान, आत्मानुभव की पूजा है । जब तक मानव-जात को सच्चे सुख की आवश्यकता है और सच्चे सुख का अनुभव करानेवाले सद्गुरु जब तक धरती पर हैं, तब तक सद्गुरुओं का आदर और पूजन होता ही रहेगा ।
            सद्गुरु का पूजन, सद्गुरु का आदर सत्यज्ञान एवं शाश्वत अनुभव का आदर है, मुक्ति का आदर है, अपने जीवन का आदर है । जो अपने मनुष्य-जीवन का आदर करना नहीं जानता वह सद्गुरु का आदर करना क्या जाने ! जो मनुष्यता की महानता नहीं जानता है वह सद्गुरु की महानता क्या जाने ! सद्गुरु आत्मज्ञान के लहराते सागर हैं और शिष्यरूपी चन्द्र को देखकर छलकते हैं । शिष्य निर्मलबुद्धि हो जाता है तो उसमें कोमलता आती है । निर्मल बुद्धि व शुद्ध हृदय में वह ज्ञान का जगमगाता प्रकाश, आनंद, नित्य नवीन रस प्रकट करने में सक्षम होता है ।
            बहिर्गुरु को इन आँखों से सब लोग देख सकते हैं लेकिन सत्शिष्य तो उपदेश के द्वारा, सुमिरन के द्वारा अंतर्गुरु की प्रतीति करके अपने चित्त को हँसते-खेलते पावन करने में सफल हो जाते हैं । बहिर्गुरु को तो शास्त्रों के द्वारा भी कोई समझ ले लेकिन अंतर्गुरु को तो शिष्य का अंतर ही समझ पाता है, झेल पाता है । जैसे एक बर्तन का शहद अथवा घी दूसरे बर्तन में उँडेला जाता है तो पहला बर्तन खाली-सा हो जाता है लेकिन यह ज्ञान खाली नहीं होता । जला हुआ दीया हजारों अनजले दीयों को जला के प्रकाशित कर दे तो भी जले हुए दीये का कुछ नहीं घटता है यह ऐसा आत्म-दीया है । संसारी दीये का तो तेल नष्ट हो जाता है लेकिन अनंतज्ञान दीये का कभी कुछ नष्ट नहीं होता । यह अविनाशी का आदर है, पूजन है । यह अविनाशी की प्यास जब तक मनुष्य-चित्त में बनी रहेगी, तब तक गुरुपूर्णिमा महोत्सव मनाया जाता रहेगा और सद्गुरुओं का आदर होता रहेगा ।
            ‘गुरुपूर्णिमा उत्सवपूर्ण होने की खबर लानेवाला उत्सव है । यह व्रत है । सद्गुरु-पूजन किये बिना शिष्य अन्न नहीं खाता । शारीरिक पूजन करने का अवसर नहीं मिलता है तो मन से ही पूजन कर लेता है । षोडशोपचार से पूजा करने से जो पुण्य होता है उससे कई गुना ज्यादा मानस-पूजा का पुण्य कहा गया है । वह सत्शिष्य सद्गुरु की मानस-पूजा कर लेता है ।

भावे हि विद्यते देवः ।

            लोहे की, काष्ठ या पत्थर की मूर्ति में देव नहीं, तुम्हारा भाव ही तो देव है । सत्शिष्य अपने सद्गुरु को मन-ही-मन पवित्र तीर्थों के जल से नहलाता है । वस्त्र पहनाता है, तिलक करता है, पुष्पों की माला अर्पित करता है । सद्गुरु के आगे कुछ-न-कुछ समर्पित करता है ।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।

            गुरु, आचार्य अपनी-अपनी जगह पर आदर करने योग्य हैं लेकिन सद्गुरु तो सदा पूजने योग्य हैं । सत्य का जिनको ज्ञान हो गया, परमात्मा का जिनको अपने हृदय में साक्षात्कार हो गया वे सद्गुरु हैं । संत कबीरजी कहते हैं :

कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर ।।
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये सद्गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान ।।


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