ऋषियों की वाणी है ‘ऋषि प्रसाद’।
कर्म
किये बिना कर्ता रह नहीं सकता और कर्म में पराधीनता है। बिना पराश्रय के कर्म होता
ही नहीं, पर का आश्रय लेना ही पड़ता है और किये बिना रहा
नहीं जाता है। ….. तो पर का आश्रय लेने वाला कर्म अगर कर्म को
परोपकार में बदल दे तो कर्ता ‘स्व’ के सुख में, स्व
की शांति में, स्व
के ज्ञान में स्थिर होने के काबिल हो जाता है और कर्ता का करने का राग मिट जाता
है। निःस्वार्थ भाव से सदगुरु का, ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों का देवी कार्य
करने का अकसर मिलता है तो धीरे-धीरे कर्ता की आसक्ति, वासना
क्षीण होने लगती है। जैसे पति की इच्छा में पतिव्रता की इच्छा मिल जाती है तो उसे
इच्छा रहित होन से पातिव्रत्य का सामर्थ्य मिलता है, ऐसे ही कर्म करने
वाला फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करता है तो उसको नेष्कर्म्य सिद्धि का
सामर्थ्य मिलता है। यह सेवा करना अपने-आप में एक कर्मयोग है।
कई
प्रकार के कर्म होते हैं, सेवाएँ होती हैं लेकिन भगवान और संतों
से लोगों को जोड़ना यह बहुत ऊँची सेवा है। मेरे गुरुदेव का प्रसाद, महापुरुषों
का प्रसाद ही अभी ‘ऋषि प्रसाद’ के रूप में ऋषि
प्रसाद के सेवकों द्वारा इस युग के साधनों के सदुपयोग से लोगों के घर-घर तक
पहुँचाया जा रहा है।
गुरु का दैवी कार्य ब्रह्म बना देगा !
मैं
तो यह बात भी स्वीकारने को तैयार हूँ कि अगर सेवा का मौका मिले और अपने पास कोई
साधन नहीं हो तो जैसे हमारे गुरुदेव ने सिर पर गठरी उठाकर भी लोगों तक सत्साहित्य
पहुँचाया, ऐसे ही आप लोग भी इस दैवी सेवा का महत्त्व
समझें।
महापुरुष
का संदेशा देकर कई पतित आत्माओं को पुण्यात्मा बनाते-बनाते आपकी निंदा भी हो गयी
हो तो क्या है ! वैसे भी एक दिन सब कुछ चले जाना वाला है। जिसका कर्मयोग सफल हो
गया, भक्ति तो उसके घर की ही चीज है ! ज्ञान तो उसका स्वाभाविक हो गया !
देह का अभिमान तो चला ही गया !
जिसका
भी साधुस्वभाव होगा वह गुरुसेवा से कतरायेगा नहीं, सेवा खोज लेगा।
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन
तीनों अवस्थाओं को सपना मान के जिससे ये दिखती हैं उस चौथे पद में गुरु का सेवक
टिक जाता है। तोटकाचार्य टिक गये, शबरी भीलन टिक गयी, भगवत्पाद
साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज, तुकाराम जी महाराज, रैदास
जी और हम भी टिक गये – ऐसे और भी कई महापुरुष टिक गये। कोई
बड़ा तप नहीं होता उन महापुरुषों का, गुरुसेवा बस !
गुरुसेवा सब तपों का तप है, सब जपों का जप है, सब
ज्ञानों का ज्ञान है !
एक
तरफ सम्राट बनने का आमंत्रण हो और दूसरी तरफ ब्रह्मज्ञानी गुरु का सेवाकार्य हो तो
सम्राट पद को ठोकर मारो क्योंकि वह भोगी बनाकर नरकों में भेजेगा और सदगुरु के
द्वार का कोई भी दैवी कार्य हो, वह योगी बना के ब्रह्म-परमात्म स्वभाव
में जाग देगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून
2017, पृष्ठ संख्या 2,9 अंक 294
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