मनरूपी घोडा वश करना हो तो गुरु अनिवार्य

            संवत् १५१५ में खाटू खंडेला के पास कालूडा गाँव के जोशी परिवार में एक बालक का जन्म हुआ । संत के आशीर्वाद से जन्मे इस बालक का स्वभाव कुछ विलक्षण था । उसे टीलों पर बैठने का बडा शौक था । जहाँ कहीं टीला देखता, उसके ऊपर जा बैठता । इसलिए बालक का नाम टीला पड गया ।

            बालक भगवत्प्रेमी था, भगवद्भक्तों के चरित्र सुनने में उसकी बडी रुचि थी । एक बार पिता ने बालक को भक्त ध्रुव की कथा सुनायी । टीला ने ध्रुव की तरह भगवद्-साक्षात्कार करने का निश्चय कर लिया । कुशाग्र बुद्धि होने के कारण अल्प समय में ही उन्होंने सब शास्त्रों को मथकर उनका सार भी ग्रहण कर लिया ।

            ईश्वरप्राप्ति की तडप ने बालक को लौकिक विद्या व घर-परिवार के मोह में फँसने नहीं दिया । उसने खेलणा की पहाडी पर जाकर तप करना आरम्भ किया । कई प्रकार की प्रतिकूलताएँ व प्रलोभन आये पर बालक अपने इरादे से हिला नहीं । उसकी उत्कंठा व प्रीति से प्रसन्न होकर भगवान ने दर्शन दिये और वर माँगने को कहा ।

            टीला ने कहा : ‘‘प्रभो ! आपका दर्शन करके मैं धन्य हो गया ! पर एक अभाव मुझे खटकता है । अभी तक मेरा मनरूपी अश्व मेरे वश में नहीं हुआ है । मैंने उसे वश करने के लिए बहुत साधनाएँ कीं किन्तु वह अभी भी मुझे बहुत भटकाता है । टीला ने अपनी व्यथा भगवान के सामने रखी ।

            शास्त्र भी कहते हैं :

विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगं
य इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिदः ।
व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं
वणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ ।।

            ‘अजन्मा प्रभो ! जिन योगियों ने अपनी इन्द्रियों और प्राणों को वश में कर लिया है, वे भी जब गुरुदेव के चरणों की शरण न लेकर उच्छृंखल एवं अत्यंत चंचल मनरूपी घोडे को अपने वश में करने का प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनों में सफल नहीं होते । उन्हें बार-बार खेद और सैकडों विपत्तियों का सामना करना पडता है, केवल श्रम और दुःख ही उनके हाथ लगता है । उनकी ठीक वही दशा होती है जो समुद्र में बिना कर्णधार (मल्लाह) की नाव पर यात्रा करनेवाले व्यापारियों की होती है । (तात्पर्य यह है कि जो मन को वश में करना चाहते हैं उनके लिए कर्णधार - गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है ।) (श्रीमद्भागवत : १०.८७.३३)

            भगवान ने कहा : ‘‘टीला ! वह कार्य सद्गुरु का है ।

            टीला : ‘‘तो मुझे सद्गुरु की प्राप्ति कराइये ।    

            भगवान टीला की तडप देखकर प्रसन्न हुए, बोले : ‘‘तुम्हें सद्गुरु की प्राप्ति घर बैठे हो जायेगी ।

            टीला गुरुदेव के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा । समय पाकर एक दिन भगवत्प्रेरणा से संत कृष्णदास पयहारी महाराज घूमते-घामते खेलणा आ पहुँचे । उनके दर्शन करते ही टीलाजी के हृदय में आनंद की लहरें हिलोरें लेने लगीं । वे उनके चरणों में पड गये ।

            कृष्णदासजी ने दूध पीने की इच्छा व्यक्त की ।

            टीलाजी ने कहा : ‘‘महाराज ! मैं अभी जाकर दूध लाता हूँ ।

            ‘‘कहीं जाते क्यों हो ?

            सामने जो गाय है उसीको दुह लो ।

            ‘‘वह तो बाँझ है महाराज ! दूध कहाँ से देगी ?

            ‘‘तुम जाकर देखो तो सही ।

            टीलाजी ने जैसे ही उसके थनों को हाथ लगाया, दूध झरने लगा । उन्होंने दूध दुहकर महाराजजी को अर्पित किया ।

            संत कृष्णदासजी ने टीलाजी को भगवन्नाम की दीक्षा दी व सेवा-साधना का उपदेश दिया ।

            गुरुदेव द्वारा बताये अनुसार साधन-भजन करने व उनके ज्ञानोपदेश के चिंतन-मनन से टीलाजी के हृदय में भगवदीय शांति, आनंद व ज्ञान छलकने लगा । उन्हें कई प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो गयीं । कुछ ही समय में वे एक सिद्ध संत के रूप में विख्यात हो गये ।      


[अंक- 240 - जून-2017]