यज्ञकर्म विज्ञान है कर्मकांड नहीं।
वेदानुसार
यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-
(१) ब्रह्मयज्ञ
(२) देवयज्ञ
(३) पितृयज्ञ
(४) वैश्वदेव यज्ञ
(५) अतिथि यज्ञ।
उक्त पाँच यज्ञों को पुराणों
और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को
नहीं।
।।ॐ विश्वानि
देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नासुव।।-यजु।
भावार्थ : हे
ईश्वर, हमारे सारे दुर्गुणों को दूर कर दो और जो अच्छे गुण, कर्म और
स्वभाव हैं, वे हमें प्रदान करो।
'यज्ञ' का अर्थ आग में घी डालकर मंत्र पढ़ना नहीं
होता। यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म। श्रेष्ठ कर्म। सतकर्म। वेदसम्मत कर्म। सकारात्मक
भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए आह्वान से जीवनकी प्रत्येक इच्छा पूरी होती
है। माँगो, विश्वास करो और फिर पा लो। यही है यज्ञ का रहस्य।
(१)
ब्रह्मयज्ञ : जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्य। मनुष्य से बढ़कर है पितर, अर्थात
माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पाँच शक्तियाँ और देव से
बढ़कर है- ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता
है नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' चुकता होता
है। इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्ट होता है।
(२) देवयज्ञ :
देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी
मेंअग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में
गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे 'देव ऋण' चुकता होता
है।हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएँ (लकड़ियाँ) सबसे उपयुक्त होतीं
हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जाँटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते
हैं। इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है।
(३) पितृयज्ञ
: सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और
आचार्यतृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और
आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से।
इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकताहोता है।
(४)
वैश्वदेवयज्ञ : इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी
प्राणियोंतथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही
भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ
सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि मेंहोम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ
अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं।
(५) अतिथि
यज्ञ : अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और
धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट
होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है।अंतत: उक्त पाँच यज्ञों के ही
पुराणों में अनेक प्रकार और उप-प्रकार हो गए हैं जिनके अलग-अलग नाम हैं और जिन्हें
करने की विधियाँ भी अलग-अलग हैं किंतु मुख्यत:यह पाँच यज्ञ ही माने गए हैं।
इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और
अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है किंतु इन्हें आज जिस रूप में किया जाता
है पूर्णत: अनुचित है। यहाँ लिखे हुए यज्ञ के अलावा अन्य किसी प्रकार के यज्ञ नहीं
होते।
यज्ञकर्म को
कर्त्तव्य व नियम के अंतर्गत माना गया है।
यज्ञ एक वैज्ञानिक विद्या, जो १००
प्रतिशत कारगर है-यजन, पूजन, सम्मिलित विचार, वस्तुओं का वितरण। बदले के कार्य, आहुति, बलि, चढ़ावा, अर्पण आदि
केअर्थ में भी यह शब्द उपयोग होता है।
यज्ञ, तप का ही एक रूप है। विशेष सिद्धियों या उद्देश्यों
के लिए यज्ञ किए जाते हैं। चार वेदों में यजुर्वेद यज्ञ के मंत्रों से भरा है।
इसके अलावा वेद आधारित अन्य शास्त्र, ब्राह्मण ग्रंथों और श्रोत सूत्रों में यज्ञ विधि का
बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। वैदिक कालिन कार्यों एवं विधानों में यज्ञ का
प्रधान धार्मिक कार्य माना गया है।वैज्ञानिक विद्या: यह इस संसार तथा स्वर्ग दोनों
में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का प्रमाणिक
मार्ग या साधन है।
यज्ञ एक वैज्ञानिक विद्या है
जो १००प्रतिशत कारगर एवं प्रामाणिक है। यज्ञ को पूरी तरह शास्त्र सम्मत एवं
विधिविधान से करने पर इसके अद्भुत परिणाम प्राप्त होते हैं। यज्ञ से आसपास का
वातावरण शुद्ध, पवित्र एवं दिव्य ऊर्जासे संपन्न होता है। आसपास के वातावरण में विभिन्न
प्रकार की बीमारियों के कीटाणु यज्ञ की धूम और मंत्रों की ध्वनि तरंगों से नष्ट हो
जाते हैं। इतना ही नहीं पर्यावरण के संतुलन एवं संतुलितवर्षा में यज्ञ का
महत्वपूर्ण योगदान है। यज्ञ की उपयोगिता एवं सफलता के तीन प्रमुख आधार है।
१। मंत्रों की ध्वनि का विज्ञान।
२। दिव्य जड़ी-बूटियों एवं वनस्पतियां।
३। साधक की एकाग्रता एवं मनोबल।
यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा
यंत्र समझना चाहिए जिसके सभी पूर्जे ठीक-ठीक एवं उचित स्थान पर संलग्न हो। जो यज्ञ
का ठीक प्रयोग जानते हैं तथा पूर्णत: एवं वर्चस्वी निश्चित रूप से होते हैं। यज्ञ
की विधा एक ऐसी विद्या है जो अति प्राचीन काल से चली आ रही है। यहां तक की सृष्टि
कीउत्पत्ति यज्ञ का फल कही जाती है। सृष्टि की रचना से पूर्व स्वयं शक्ति अर्जित
करने के लिए यज्ञ किया एवं शक्ति प्राप्त की।
यज्ञ मानसिक रोगों से
मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधिरोगों की जड़ शरीर में नहीं, मन में होती है। यह मानकर अपने मानसिक
संतुलन को सुस्थिर रखा जाय,तो कोई शारीरिक रोग होने पर भी वह जीवन क्रम सामान्य ढंग
से चलाया जा सकता है। मानसिक संतुलन साधने के लिए यह मान्यता बड़ी ही उपयोगी सिद्ध
हो सकती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि उस तथ्यको सभी रोगों में एक समान लागू
होते देखा जा सकता है। उनकी प्रतिक्रिया, लक्षण शरीर पर भले ही दिखाई दें, लेकिन उनकी जड़ मनुष्य के मन में होती है।
वृक्ष की जड़ जिस प्रकार जमीन के भीतर होती है और उसका तना, शाखाएँ, पत्ते, फूल, फल और शिखर
आकाश में होते हैं। इसी प्रकार रोगों का स्वरूप, उत्पात, प्रतिक्रिया शरीर के तल पर दिखाई देते हैं, लेकिन उनका
मूल मन में होता है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए महर्षियों ने हजारों वर्ष पूर्व
कहा है।
प्रज्ञापराधं रोगस्य मूल कारणं
अर्थात् प्रज्ञापराध, मानसिक अस्त-व्यस्त, असंतुलित मनःस्थिति, चिन्ता, क्षोभ और अन्यान्यमानसिक विकृतियाँ समस्त
रोगों का मूल कारण है। यदि अपनी मानसिक स्थिति को सँभाला जाय, उसे
शांत-संतुलित बनाया जाय, तो शरीर को पूर्ण स्वस्थ, निरोग और पुष्ट रखा जा सकता है। शरीर का
निदान-परीक्षण बाद में, पहले मन को ही स्वस्थ बनाये रखने की बात सोचनी चाहिए।
इसके लिए प्रचलितचिकित्सा पद्धतियों से परे मन को हलका-फुलका बनाने वाली किसी भी
विधि का सहारा लिया जा सकता है।
इसमें वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा
संपादित यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यज्ञोपैथी, ऐलौपैथी,नेचरोपैथी, होम्योपैथी, बायोकेमिकल चिकित्सा पद्धति आदि चिकित्सा
प्रणालियों की तरह विभिन्न देशों में यज्ञों से भी रोगों के उपचार की विधि खोज ली
गयी है और उसका सफलतापूर्वक उपयोग किया जाने लगा है।अब तो यज्ञ को मानसिक रोगों से
मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधि समझा जाने लगा है। कई देशों में यज्ञ-चिकित्सा
दिनों-दिन लोकप्रिय होती जा रही है। इस चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत रोगियों को
यज्ञ के वायु से निकलने वाली तरंगों को श्वास-प्रश्वास के माध्यम से ही देने के
लिए प्रशिक्षितकिया जाता है। पागल और विक्षिप्त समझे जाने वाले व्यक्तियों की
मस्तिष्कीय क्षमता पहले ही प्रयास में इस योग्य तो नहीं बन पाती कि वे बताई गयी
विधि का अक्षरशः पालन कर लें; लेकिन धीरे-धीरे वे एक-दूसरे के श्वास-प्रश्वास करने की
शैली को पहचानने लगते हैं और तथा उन श्वास-प्रश्वास (प्राणायाम) द्वारा ही उत्तर
देने लगते हैं।
प्राणायाम के माध्यम से रोगी
का यह क्रमधीरे-धीरे शरीर के अंतःस्थल तक भी पहुँच जाता है और परिणामतः रोगी के
रोगमुक्त होने में दिनों-दिन सफलता प्राप्त होने लगती है।जिन व्यक्तियों को
विक्षिप्त मान लिया जाता है और पागल समझकर समाज से अलग कर दिया जाता है, ऐसेव्यक्ति का
दिमाग वास्तव में बेकार नहीं हो जाता है। वस्तुतः लोग भावनाओं पर अत्यधिक ठेस लगने
के कारण मस्तिष्कीय संतुलन खो बैठते हैं। कभी-कभी यह असर इतना गहरा हो जाता है कि
वह व्यक्ति समाज की धारा से पूरी तरह कट-पिटकर अपने आप में सिमट जाता है। यज्ञ में
भावनाओं को जाग्रत करनेऔर सम्बल देने को ही नहीं, उनके परिष्कृत बनाने तथा उनका संतुलन साधने
की प्रभावशाली क्षमता है। शरीरशास्त्रियों की मान्यता है कि मस्तिष्क के कुछ भाग
भावनाओं को उत्तेजित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
यज्ञ से उत्पन्न तरंगों का
उन अंगों पर बहुत अच्छा और अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यज्ञ द्वारा मस्तिष्क की उन
सिकुड़ी हुई मांस-पेशियों को शक्ति मिलती है। फलतः व्यक्ति को भावनात्मक बल और
आनन्द मिलता है। वे पेशियाँ जो कारणवश निष्क्रिय हो जाती हैं,पुनः सक्रिय
हो उठती हैं। इसी नियम को एक विधि- व्यवस्था के साथ रोग चिकित्सा के लिए अपनाया
जाता है और अब तो जटिल से जटिल रोगों का उपचार भी यज्ञोपैथी द्वारा किये जाने की
विधियाँ खोज ली गयी हैं। यज्ञोपैथी के माध्यम से रोगोपचार की यह पद्धति तो कुछ
वर्षों पूर्व ही आविष्कृत की गयी है।
अब चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान इस दिशा में
भी गया है। बाहरी उपकरण इतना प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, तो स्वयं अपनी ही कर्म (यज्ञ करना) तो और
अधिक प्रभाव उत्पन्न करते होंगे। इस विषय पर चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान भले ही
अभी गया हो, परन्तु यह तो प्राचीनकाल से जान, समझ लिया गया है कि यज्ञ के द्वारा समस्त रोगों से
छुटकारा पाया जा सकता है। यज्ञ मनुष्य को न केवल हलका-फुलका व प्रफुल्लित कर देता
है, वरन् उसकी कई चिंताओं, दबावों और तनावों तथा समस्याओं के बोझ को भी बड़ी सीमा
तक समाप्त कर देता है।भारतीय मनीषियों ने यज्ञ की इस शक्ति को हजारों वर्ष पूर्व
पहचान कर उसका उच्च उद्देश्यों के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया था। यज्ञ साधना का
अपना एक स्वतंत्र विज्ञान है। कोई आश्चर्य नहीं कि यज्ञ का स्वास्थ्य प्रयोजन के
लिए उपयोग करते-करते विज्ञान इस तथ्य को भी बहुत जल्दी स्वीकार करने की स्थिति में
आ जाय कि यज्ञ मानव मात्र, प्राणिमात्र के लिए सर्वतोभावेन कल्याणकारी है। वर्तमान
की अनेकानेक समस्याओं का समाधान उसमें सन्निहित है।
यज्ञ का प्रभावसूक्ष्मविज्ञान
पर आधारित यज्ञ की प्रभावोत्पादकता हविर्द्रव्यों , समिधाओं , मंत्रोच्चार , प्रयोक्ता के व्यक्तित्व एवं समय - विशेष पर
आधारित होती है। इन सभी का समुचित संतुलन बन जानेपर यज्ञ में एक विशिष्ट प्रकार का
चुम्बकीय प्रभाव एवं प्रवाह उत्पन्न होता है। यह यजनकर्त्ताके साथ-साथ सम्पूर्ण
वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव प्रस्तुत करता है।प्राय: यज्ञ करने पर यज्ञीय धूम्र
नीचे से ऊपर की ओर चलता है। यदि वायु स्थिर हो , हवा न चल रही हो तो इस धूएँ का बहाव सीधा
एवं नियंत्रित होता है। वायु मिश्रित धूएँ में विद्युत् आविष्ट कणों तथा आयनों का
एक कोलाईडल घोल होने के कारण इसके सीधे ऊपर की ओर चलने के वही प्रभावहोंगे ; जो की एक
विद्युत् - प्रवाह के होते हैं। जिस तरह से किसी भी विद्युतीय - प्रवाह से
चुम्बकीय क्षेत्र बनता है , उसी तरह से यज्ञकुंड से उठने वाले धूएँ के चारों ओर एक
चुम्बकीय क्षेत्र बनता है और यह यजनकर्त्ता को सीधे प्रभावित करता है।यज्ञ -
विज्ञान की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए यह आवश्यक है की हवन-कुंड से उठने
वाली यज्ञ - शिखा का विस्तृत भौतिक विश्लेषण किया जाये। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि
यज्ञ-कुंड से काफी मात्रा में विद्युत् चुम्बकीय तरंगे उठती हैं और ये माइक्रोवेव
या अल्ट्राशोर्टवेव स्तर की होती हैं। इन तरंगों की प्रगाढ़ता यज्ञ-कुंड के आस-पास
के वातावरण को ठंडा करने से और बढ़ जाती हैं।
हवन कुंड के चारों ओर एक
नाली बनाकर उसमें जल भरने से तथा यज्ञ शाला के निकट अनेक जल भरे कलश स्थापित करने
को इसी उद्देश्य की पूर्ति के रूप में समझा जा सकता है।सस्वर मंत्रोच्चार से
उत्पन्न ध्वनि - कम्पनों से यज्ञ-शिखा पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि जिसके कारण उससे
निकलने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगे प्रभावित होती हैं। इस तरह से रेडियो -
प्रसारण जैसा एक तन्त्र भौतिकी के आधार पर कार्य करता हुवा देखा जा सकता है।
हवन-कुंड विशेष धातुओं , जैसे चांदी या ताम्बे का बनाकर इन विद्युत् तरंगों की
आवृत्ति तथा आवेग को नियंत्रित किया जा सकता है। साथ ही मंत्रोच्चार से स्वयं यजन
कर्त्ता को विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का केंद्र बनते हुवे स्पष्ट रूप से देखा जा
सकता है। मंत्रोच्चार करने वाले व्यक्ति की सम्पूर्ण काया शरीर में उठने वाली
यांत्रिक कम्पनों से झंकृत होने लगती है। शरीर का पत्येक कोश-सेल एक इलेक्ट्रिक
कैपेसिटर _ विद्युत् संधारित है। सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता बेस्ट एंड टेलर के अनुसार
इसकी विद्युत् संधारित क्षमता _ इलेक्ट्रिक कैपेसिटेंस लगभग एक माइक्रोफेड प्रतिवर्ग
सेंटीमीटर आंकी गयी है।सामान्यत: रेडियो तथा टेलीविजन आदि यंत्रों में लगने वाले
विद्युत् संधारित्रों की क्षमता शरीरको कोशकीय क्षमताओं से कहीं कम होती है। किसी
भी मानक से इस क्षमता को बहुत विस्मयकारी कहा जासकता है। प्राय: व्यक्ति यह नहीं
जानता कि उसके शरीर में इतनी भरी विद्युत्शक्ति को धारण करने की क्षमता है। जब
शरीर का प्रत्येक अवयव _ कोश एवं ऊतक ध्वनि - कम्पनों से झंकृत होने लगता है ; तो भौतिकों के
शब्दों में ये कम्पन एक विद्युत् संधारित्र के कम्पन मने जा सकते हैं तथा इन
कम्पनों से विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का बनना अवश्यम्भावी है। यही वैद्युतीय
चुम्बकीय तरंगें हवनकुंड के आस-पास बैठे हुवे यज्ञ - कर्त्ताओं को सीधे भी
प्रभावित करेंगी तथा परावर्तित होकर भी। इन तरंगों का परावर्तन इसलिए होना सम्भव
है , क्योंकि यज्ञीय अग्नि - शिखा विद्युत् आवेशधारी आयनों तथा कणों का एक समूह
है। इस समूह से विद्युत् चुम्बकीय तरंगें परावर्तित होकर मंत्रोच्चार करने वाले
व्यक्ति तथा अन्य यजनकर्ताओं पर पड़ना वैसे ही समझा जा सकता है ; जैसे शार्टवेव
रेडियो ट्रांसमीटर से चलने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगें पृथ्वी के वायुमंडल
आयस्नोफीयर परत से टकराकर वापिस आती हैं और पृथ्वी की गोल स्थ पर दूर - दूर तक फ़ैल
जाती है। इस प्रक्रिया में अग्निशिखा को एक प्रबल एम्प्लीफायर या प्रवर्तक के रूप
में माना जा सकता है ,जिसमें विद्युत् का स्रोत विद्युत् लाइन या सेल नहीं , वरन यज्ञीय
ऊर्जा _ अग्निशिखा है। यज्ञ का प्रभाव मनुष्य के शरीर पर नहीं ; मन और
अन्तश्चेतना पर भी पड़ता है। इसका स्थूल रूप यज्ञोपैथी के रूप में स्पष्ट रूप से
देखा जा सकता है। यज्ञोपैथी में स्थूल चुम्बकों का प्रयोगतो नहीं होता ; पर यज्ञ -
प्रक्रिया के फलस्वरूप चुम्बकीय क्षेत्र और प्रबल विद्युत् तरंगें अवश्य बनती हैं।
यज्ञीय धूम्र में ऋण आवेशग्रस्त कणों का होना रसायनशास्त्र के आधार पर स्पष्टरूप
से समझा जा सकता है। ये कण नीचे से ऊपर की ओर चलते हैं ओर भौतिकी के प्रचलित
नियमों के अनुसर धुंए की इस प्रवाह - प्रक्रिया को ऊपर से नीचे की ओर चलने वाले एक
विद्युत् करेंट के समतुल्य समझा जा सकता है। यह करेंट जो विद्युत् - क्षेत्र
बनाएगा , उसका उत्तरी ध्रुव यज्ञ - कुंड के उत्तर की ओर तथा दक्षिणी ध्रुव यज्ञकुंड
के दक्षिण की ओर होगा। यज्ञ से उत्पन्न होने वाला यह चुम्बकीय क्षेत्र पृथ्वी के
चुम्बकीय क्षेत्र की काट नहीं करेगा , वरन दोनों जुड़कर एकसशक्त चुम्बक जैसा प्रभाव डालेंगे।
क्योंकि यज्ञ - धूम्र यज्ञशाला के समूचे वातावरण में फ़ैल जाता है , इसलिए यह
चुम्बकीय क्षेत्र यजन कर्त्ता को समान रूप से प्रभावित करता है। प्रचलित चुम्बक
चिकित्सा में प्रयोग किए जाने वाले बड़े-बड़े चुम्बक , जो मात्र शरीर के कुछ ही स्थानों या भागों
पर प्रभाव डालते हैं ; इसकीअपेक्षा यज्ञ-धूम्र के छोटे-छोटे चुम्बकीय प्रभावधारी कण सूक्ष्म होने
के कारण कहीं अधिक लाभकारी होते हैं। यज्ञ चिकित्सा की प्रभावोत्पादकता का एक यह
भी रहस्य है।
वास्तव में हमारी पुरातन
वैदिक यज्ञ - पद्धति पूर्णतया विज्ञान- सम्मत है। पूर्व समय में हर घर परिवार में
नित्य यज्ञ होता था और सभी निरोग रहते थे। यज्ञ के माध्यम से सभी संस्कार होते थे
और इसी से निखर कर मनुष्य दैविक गुणों को धारण करता था। यज्ञ से साधना , संस्कार , तप आदि का
श्रीगणेश होता है। यज्ञ मात्र संस्कार ही नहीं , अपितु साधना की सतत प्रक्रिया है।
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