धर्म
की खातिर प्राण देने पड़े तो देंगे लेकिन अत्याचारियों के आगे कभी नहीं
झुकेंगे - गुरु गोविन्दसिंह के वीर सपूत।
विलासियों
द्वारा फैलाये गये जाल, जो आज हमें व्यस्न, फैशन
और चलचित्रों के रूप में देखने को मिल रहे हैं, उनमें
नहीं फँसेंगे। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए
सदा तत्पर रहेंगे। ૐ..... ૐ.... ૐ.....
फतेहसिंह और जोरावरसिंह
सिख धर्म के दसवें गुरु गोविन्दसिंहजी के सुपुत्र थे।
आनंदपुर के युद्ध में गुरुजी का परिवार बिखर गया
था। चार पुत्रों में से दो छोटे पुत्र गुरु गोविन्दसिंह की
माता गुजरी देवी के साथ बिछुड़ गये। उस समय जोरावरसिंह की उम्र मात्र सात
वर्ष ग्यारह माह तथा फतेहसिंह की उम्र पाँच वर्ष दस माह थी। दोनों अपनी
दादी के साथ जंगलों, पहाड़ों को पार करके एक नगर में पहुँचे। गंगू नामक
ब्राह्मण, जिसने बीस वर्षों तक गुरुगोविन्दसिंह के पास रसोइये का काम
किया था, उऩके आग्रह पर माता जी दोनों नन्हें बालकों के साथ उनके घर गयीं।
गंगू ने रात्रि को माता गुजरी देवी के सामान में पड़ी सोने की मोहरें
चुरा लीं, इतना ही नहीं इनाम पाने के लालच में कोतवाल को उनके बारे
में बता भी दिया। कोतवाल ने दोनों
बालकों सहित माता गुजरी देवी को बंदी बना लिया।
माता गुजरी
देवी दोनों बालकों को उनके दादा गुरु तेगबहादुर और पिता गुरुगोविन्दसिंह
की वीरतापूर्ण कथाएँ सुनाकर अपने धर्म में अडिग रहने के लिए
प्रेरित करती रहीं। सुबह सैनिक बच्चों को लेने पहुँच गये। दोनों बालक नवाब
वजीर खान के सामने पहुँचे। शरीर पर केसरी वस्त्र, पगड़ी तथा कृपाण धारण
किये इन नन्हें योद्धाओं को देखकर एक बार तो नवाब का भी हृदय पिघल गया। उसने कहाः "बच्चो ! हम तुम्हें
नवाबों के बच्चों की तरह रखना चाहते हैं। एक छोटी सी शर्त
है कि तुम अपना धर्म छोड़कर हमारे धर्म में आ जाओ।" नवाब
की बात सुनकर दोनों भाई निर्भीकतापूर्वक बोलेः "हमें अपना धर्म प्राणों
से भी प्यारा है। जिस धर्म के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों
की बलि दे दी उसे हम तुम्हारी लालचभरी बातों में आकर छोड़ दें, यह
कभी नहीं हो सकता।" नवाबः
"तुमने हमारे दरबार का अपमान किया है। यदि जिंदगी चाहते हो तो..." नवाब
अपनी बात पूरी करे इससे पहले ही नन्हें वीर गरजकर बोल उठेः "नवाब ! हम
उन गुरु तेगबहादुर के पोते हैं जो धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गये।
हम उन गुरु गुरु गोविन्दसिंह के पुत्र हैं, जिनका नाम सुनते
ही तेरी सल्तनत थर-थर काँपने लगती है। तू हमें मृत्यु का भय दिखाता है ? हम
फिर से कहते हैं कि हमारा धर्म हमें प्राणों से भी प्यारा है। हम प्राण
त्याग सकते हैं परंतु अपना धर्म नहीं त्याग सकते।"
इतने में दीवान
सुच्चानंद ने बालकों से पूछाः "अच्छा, यदि हम तुम्हें छोड़
दें तो तुम क्या करोगे ?" बालक
जोरावरसिंह ने कहाः "हम सेना इकट्ठी करेंगे और अत्याचारी मुगलों को इस
देश से खदेड़ने के लिए युद्ध करेंगे।"
दीवानः "यदि तुम हार गये तो ?" जोरावरसिंह (दृढ़तापूर्वक)- "हार
शब्द हमारे जीवन में ही नहीं है। हम हारेंगे नहीं, या
तो विजयी होंगे या शहीद होंगे।" बालकों की वीरतापूर्ण बातें
सुनकर नवाब आगबबूला हो उठा। उसने
काजी से कहाः "इन बच्चों ने हमारे दरबार का अपमान किया है तथा भविष्य
में मुगल शासन के विरूद्ध विद्रोह की घोषणा की है। अतः इनके लिए क्या
दंड निश्चित किया जाय ?" काजीः
"इन्हें जिन्दा दीवार में चुनवा दिया जाय।" फैसले के बाद दोनों बालकों
को उनकी दादी के पास भेज दिया गया।
बालकों ने
उत्साहपूर्वक दादी को पूरी घटना सुनायी। बालकों की वीरता
देखकर दादी गदगद हो उठी और उन्हें हृदय से लगाकर
बोलीः "मेरे बच्चो ! तुमने अपने पिता की लाज रख ली।" दूसरे दिन
दोनों वीर बालकों को एक निश्चित स्थान पर ले जाकर उऩके चारों ओर दीवार
बनानी प्रारम्भ कर दी गयी। धीरे-धीरे दीवार उनके कानों तक ऊँची उठ गयी।
इतने में बड़े भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की
ओर देखा और उसकी आँखों में आँसू छलक उठे।
जोरावरसिंह की इस अवस्था को देखकर वहाँ खड़ा काजी समझा कि ये बच्चे मृत्यु
को सामने देखकर डर गये हैं। उसने
कहाः "बच्चो ! अभी भी समय है। यदि तुम हमारे धर्म में आ जाओ तो तुम्हारी
सजा माफ कर दी जायेगी।" जोरावरसिंह
ने गरज कर कहाः "मूर्ख काजी ! मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ। मेरा
भाई मेरे बाद इस संसार में आया परंतु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो
रहा है। मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला इसलिए मुझे रोना
आता है।" सात वर्ष के इस नन्हें से बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी
दंग रह गये। थोड़ी देर में दीवार पूरी हुई और वे दोनों नन्हें धर्मवीर
उसमें समा गये। कुछ समय पश्चात
दीवार को गिरा दिया गया। दोनों बालक बेहोश पड़े थे परंतु अत्याचारियों
ने उसी स्थिति में उनकी हत्या कर दी।
विश्व के किसी अन्य देश के इतिहास में इस प्रकार की घटना नहीं है, जिसमें सात
और पाँच वर्ष के दो नन्हें सिंहों की अमर वीरगाथा का वर्णन हो।
धन्य हैं ऐसे
धर्मनिष्ठ बालक ! धन्य है भारत माता, जिसकी पावन गोद
में ऐसे वीर बालकों ने जन्म लिया। विद्यार्थियो ! तुम
भी अपने देश और संस्कृति की सेवा और रक्षा के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना।
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