" सनातन धर्म " क्या है ? "

              सनातन धर्म " दो शब्दोँ से बना है "सनातन" और "धर्म"। सनातन का तात्पर्य है जिसकी आदि और अंत सृष्टि के साथ हो, जो लम्बे समय से चला आ रहा हो और भविष्य मेँ भी रहे और जो कभी नष्ट न हो और धर्म का मतलब जिससे सबका भला हो सबका उत्थान हो, सभी सुखी रहेँ। सनातन धर्म मेँ साधारण जीव से ब्रह्म तक का सफर है। सारी सृष्टियोँ मेँ जो भी है सब सनातन ही है जो कभी नष्ट नहीँ हुआ न होगा। हम सब भी सनातन ब्रह्म हैँ क्योँकी आत्मा ब्रह्म है। सनातन धर्म = दान, तप, दया, धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, सत्य, क्रोध न करना, निर्भयता, शरणागत रक्षा, ब्रह्मचर्य, न्याय, अहिँसा है। इसीलिए सनातन सर्वोपरि है। सनातन धर्म बैज्ञानिक तथ्योँ से भरपूर है। "भविष्य पुराण" के अनुसार धर्म - असहाय का पालन पोषण, शरणागत की रक्षा और दया करना यही मुख्य धर्म है। भयभीत को अभयदान देने के समान कोई दान नहीँ है। उदण्डोँ को दण्ड देना चाहिए, पूज्यजनोँ की पूजा करनी चाहिए। गौ एवं ब्राह्मणोँ मेँ नित्य आदर रखना चाहिए। दण्ड देने मेँ समान भाव रखना चाहिए, पक्षपात नहीँ करना चाहिए। देवता की पूजा मेँ छल-छद्म एवं कपट को छोडकर श्रद्धा भक्तिरुपी सत्य का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। गुरु एवं शेष्ठ जनोँ की पूजा मेँ इंद्रियनिग्रह एवं समाहितचित्त का विशेष ध्यान रखना चाहिए। दान देते समय मृदुता का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। थोडे से भी हुये निँद्य कर्म को बहुत बडा अपराध समझकर उससे हमेशा दूर रहना चाहिए। ‘‘कृत्य च प्रति कर्तव्यम् ऐश धर्मः सनातनः’’ जिस किसी ने भी हमारे प्रति उपकार किया है उस उपकारी के प्रति सदा-सर्वदा हृदय से कृतघ्न रहना यही है सनातन धर्म।
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धर्म क्या है ?

                           जनसाधारण में ऐसी मान्यता है कि धर्म अनेक होते हैं, वास्तव में धर्म सदैव एक ही होता है उसके साथ हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि विशेषण लगाना अज्ञानता है, धर्म का वास्तविक अर्थ है निम्न गुणों को जीवन में धारण करना :-

१.अहिंसा:- शरीर, मन और वाणी से किसी को किसी प्रकार का कष्ट न देना,सबसे प्रीति पूर्वक व्यवहार करना।न्याय और धर्म की रक्षा हेतु दण्ड देना हिंसा नहीं है l

२.सत्य:- सदैव सत्य और प्रिय बोलना ।

३.अस्तेय:- छल, कपट, चोरी आदि न करना।

४. ब्रह्मचर्य :- इंद्रियों का सदुपयोग करना, स्वाद ले ले कर उनका भोग न करना ।

५.अपरिग्रह:- आवश्कता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, लोभ लालच न करना, यथाशक्ति सुपात्रों की सहायता करना ।

६.शौच:- शरीर,घर, गाँव,नगर, कार्यालय आदि को साफ सुथरा रखना। यज्ञ/हवन आदि द्वारा वातावरण को शुद्ध रखना ।

७.सन्तोष:- सत्यनिष्ठ के साथ परिश्रम करना और उसका जो भी फल ईश्वर दे उसमें सन्तुष्ट रहना।

८.तप:- लाभ हानि, मान अपमान, निन्दा-स्तुति, हर्ष शोक आदि में सम रहना, विचलित न होना l

९.स्वाध्याय:- वेदादि शास्त्रों का पढना, आत्मनिरिक्षण करते रहना, त्रुटियों को दूर करना,ओ३म् का जप करते रहना आदि l

१०.ईश्वर प्रणिधान:- सर्वव्यापक, निराकार ईश्वर के प्रति दृढ़ विश्वास और प्रेम रखना। प्रात: सायं ध्यानावस्थित होकर ईश्वर के गुणों का चिन्तन करना अर्थात संध्या करना, दैनिक यज्ञ करना आदि l

              विश्व शान्ति, मनुष्य जन्म की सफलता, यम नियमों, धर्म के दस लक्षणों एवं समाधि अर्थात ईश्वर साक्षात्कार के मूल में भी यही सब बातें आती हैं l
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