श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में आता है किः "चित्तरूपी पिशाच भोगों की तृष्णारूपी विष से पूर्ण है और उसने फुत्कार के साथ बड़े-बड़े लोक जला दिये हैं। शम-दम आदि धैर्यरूपी कमल जल गये हैं। इस दुष्ट को और कोई नहीं मार सकता.... हे राम जी ! यह चित्त शस्त्रों से नहीं काटा जाता, न अग्नि से जलता है और न किसी दूसरे उपाय से नाश होता है। साधु के संग और सत्शास्त्रों के विचार से नाश होता है।" चित्तरूपी पिशाच को, मन रूपी भूत को समझाने के लिए वशिष्ठजी महाराज कहते हैं।'शम' माने मन को रोकना, 'दम' माने इन्द्रियों को रोकना और भगवान में लगाना।इन शम दमादि सारे सदगुणों को चित्तरूपी पिशाच ने नष्ट कर दिया है। इस चित्तरूपी पिशाच को शनैः शनैः वश करने का यत्न करना चाहिए। नियम में निष्ठा रखें एवं अपने को व्यस्त रखें। सत्प्रवृत्ति, सत्कर्म में ऐसे लगे रहो कि दुष्प्रवृत्ति और दुष्कर्म के विषय में सोचने का समय ही न मिले, करने की बात तो ही दूर रही। 'खाली दिमाग शैतान का घर' होता है अतः अपने को व्यस्त रखें। अपने समय का सदुपयोग करें।सत्पुरुषों के रास्ते चलें, ईश्वर के नाम का आश्रय लें। इसी से अपना मंगल होता है, कल्याण होता है। यह चित्तरूपी पिशाच जो जन्म-मरण के चक्कर में ले जाता है, विकारों में तपाता है वह शस्त्रों से काटा नहीं जाता, आग से जलाया नहीं जाता और न ही अन्य हथियारों से नष्ट किया जा सकता है। यह तो केवल संतों के संग, सत्शास्त्रों के विचार और भगवन्नाम के जप से ही शांत होता है और बड़े लाभ को प्राप्त कराता है। बड़े में बड़ा लाभ है-आत्मसुख, हृदय का आनंद, हृदयेश्वर का बोध प्राप्त हो जाय। फिर सुख और दुःख की चोट नहीं लगती। दिव्य ज्ञान की, दिव्य आनंद की दिव्य प्रेरणा मिलती है। अपने आत्मखजाने की प्राप्ति होने से सारे दुःख सदा के लिए मिट जाते हैं। ऐसा पुरुष स्वयं तो परमसुख पाता ही है दूसरों को भी सुख देने में सक्षम हो जाता है। जरूरत है तो केवल चित्तरूपी वैताल को वश करने की।ईश्वर में मन लगता नहीं है इसलिए इधर-उधर भटकता है। जप-ध्यान, सेवा में नियम से लगता नहीं है, इधर-उधर की बातों में ज्यादा लगता है। अतः यत्नपूर्वक मन को जप ध्यान-सेवा में लगायें। इधर-उधर के फालतू विचार आयें तो मन को कह दें-खबरदार ! मेरा मनुष्य जीवन है और परमात्मा में लगाना है। मन ! तू इधर-उधर की बातें कब तक सुनेगा और सुनायेगा ? एक-दूसरे के झगड़े में, टाँग खींचने में अथवा विकारों में कब तक खपता रहेगा ?" जो अपना समय एक-दूसरे को लड़ाने में, टाँग खींचने में अथवा विकारों में नष्ट करते हैं, उऩका विनाश हो जाता है। फिर वे 'कोचमैन' का घोड़ा बनकर भी कर्म नहीं काट सकते और कुम्हार का गधा बनने पर भी उनके पूरे कर्म नहीं कटते। सुअर, कुत्ता, पेड़-पौधा आदि कई योनियों में भटकते हैं फिर भी कर्मों का अंत नहीं होता। केवल मनुष्य जन्म में ही जीव सारे कर्मों का अन्त करके अनंत को पा सकता है। मनुष्य जीवन बड़ी कीमती है। इस कीमती समय को जो गप-शप में खर्चता है उसके जैसा अभागा दूसरा कोई नहीं है। इस कीमती समय को जो दूसरों की टाँग खींचने में या निंदा-चुगली में लगाता है, उसके जैसा बेवकूफ दूसरा कौन हो सकता है ? इस कीमती समय को छल-कपट करके अपने हृदय को जो मंद बना देता है उस जैसा आत्महत्यारा कौन ? रक्षताम् रक्षताम् कोषानामपि हृदयकोषम्। 'रक्षा करो, रक्षा करो अपने हृदय की रक्षा करो।' इसमें मलिन विचार न आयें, इसमें छल-कपट न आये। अगर किसी कारणवश आ भी जाये तो तुरंत सचेत होकर उससे अलग हो जायें। तभी हृदय शुद्ध होगा। यदि कोई हृदय में छल कपट, बेईमानी रखता है तो जप-ध्यान पूरा फलता नहीं है। कोई बोलते हैं किः 'राम-राम करेंगे तो तर जायेंगे। गीध, गणिका, अजामिल आदि तर गये, बिल्वमंगल तर गये।' लेकिन कब तरे ? जब वैश्या का रास्ता छोड़ सच्चाई से ईश्वर का रास्ता पकड़ा, ध्यान-भजन में बरकत आयी तब तरे। अजामिल 'नारायण-नारायण' करके तर गये। कैसे तरे कि बुराइयाँ छोड़कर अच्छे मार्ग पर कदम रखा, तब तरे। ऐसा हीं कि भलाई का काम भी करते रहे और अंदर से बुराई, छल-कपट भी करते रहे ! बुराई को बुराई जानें और जो सच्चाई है उसको सच्चाई जानें। अपनी बुद्धि को बलवान बनायें। आत्मविषयिणी बुद्धि करें, फिर मन उसके अनुरूप चले और इन्द्रियाँ भी उसके कहने पर चलें। एक बार परब्रह्मपरमात्मा का साक्षात्कार कर लें फिर विकारों में होते हुए भी निर्विकारी नारायण में रहेंगे। भोग में रहते हुए भी आत्मयोग में रहेंगे। तमाम व्यवहार करने पर भी, जनक की तरह लेना-देना, राज्य करना पड़े फिर भी अंतःकरण में भगवत्-रस, भगवत्-ज्ञान, भगवत्-शांति बनी रहेगी। एक बार भगवत्तत्व को पाने तक अपने चित्त की रक्षा करो, फिर तो स्वाभाविक ही सुरक्षित रहता है। जैसे एक बार दही से मक्खन निकाल दो फिर छाछ में डालो तब ऊपर ही रहेगा, ऐसे ही एक बार बुद्धि को इन विकारों से, प्रपंचों से ऊपर ऩिकालकर परमात्मसुख का स्वाद दिला दो फिर बुद्धिपूर्वक संसार में रहो तो भी कोई लेप नहीं लगता। तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। (गीता) उसकी प्रज्ञा परब्रह्म में प्रतिष्ठित हो जाती है। अतः आप भी प्रयत्न करो, पुरुषार्थ करो, शाश्वत फल पाओ। प्रज्ञा को परब्रह्म में प्रतिष्ठित करके मोक्ष सुख को पा लो। स्वर्ग भी जहाँ फीका हो जाय उस आत्म-परमात्म सुख को दाँव पर लगा कर वृद्ध होने वाले, बीमार होने वाले और छूट जाने वाले कल्पित शरीर के पीछे आत्मा का घात कर रहे हैं। चैतन्य-चंदन को भूले जा रहे हैं, खोय जा रहे हैं। काश ! अभी भी रुक जायें। आखिर कब तक इस नश्वर की ममता करेंगे ! शाश्वत का संगीत, शाश्वत आनंद और शाश्वत सुख को पाने के प्रयास में लगें। ॐ शांति.... ॐ आंतरिक सुख... ॐ अंतरात्मा का माधुर्य-ज्ञान... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ