उज्जैनी नरेश चक्रवती सम्राट महाराज विक्रमादित्य विश्व इतिहास के सबसे महान राजा थे। "विक्रम संवत के प्रणेता महाराज विक्रमादित्य" रात्री की निस्तब्धता का भंग करती हुई एक कुटिया में से रुदन की ध्वनि आ रही थी । भीतर एक वृद्धा थी जिसके नेत्रों की ज्योति मंद हो चुकी थी । उन ज्योतिहीन नेत्रों के भीतर से उष्ण आंसुओं की धार बहाती हुई वह रो रही थी । उसका इकलौता जवान लडका जो उसके जीवन का एकमात्र आशय था । बर्बर शकों के आक्रमणो में मारा गया था । अचानक द्वार खटखटाने की ध्वनि हुई । बुढिय़ा ने पूछा इस आदि रात को कोन है ?" उत्तर मिला " माँ मै आया हूँ।" माँ शब्द मात्र से ही बुढिया का हृदय आनंद से झूमने लगा । भावाकुल दशा में वह द्वार की ओर दौडी । एक सुंदर तेजस्वी सुर्य के समान तेजस्वी युवक बुढिया के चरण स्पर्श करने लगता है । बुढिय़ा ने उसे अपने हृदय से लगा कर प्रेम आसुओं से स्वागत किया। बेटा तु जीवित हैं ? माँ मैं तेरी सेवा के लिए आया हूँ , पर बेटा इतने दिनों गुम रहा ? बेटा तेरी आवाज कुछ बदल गयी है ? हाथ से छू कर माँ ने पुनः कहा - तेरा शरीर भी कुछ बङा है । माँ काल बीतने से कुछ अन्तर भी हो जाता है । यह कह कर नवयुवक ने बुढिया की रात भर सेवा कर प्रातः काल नवयुवक ने कहा -" मैं राजदरबार में नोकरी के लिए जा रहा हूँ शाम को आऊंगा । माँ को कुछ सन्देह हुआ किन्तु नवयुवक का प्रमे तथा सेवा भाव देखकर उसने यही सोचा कि मेरे अपने पुत्र के सिवा और कोई एसा व्यवहार नहीं सकता । प्रतिदिन रात्री को नवयुवक आ कर माँ की सेवा करता तथा सूर्योदय होते होते वह चला जाता । एक दिन बुढिया को पता चल गया कि वह नवयुवक और कोई नहीं स्वयं दुखियों के दुख दूर करने वाले , न्याय प्रिय , महाराज शकारी चक्रवती सम्राट विक्रमादित्य है जो रात्री को वेश बदल कर अपनी प्यारी प्रजाओं के दुःख जो रात्री को वेश बदल कर अपनी प्यारी प्रजाओं के दुःख भंजन के लिए घूमते हैं , तथा दुखियों के आंसू पोंछते हैं । अपना सारा वात्सल्य उस तेजस्वी युवक पर लुटाते हुए वृद्धा ने रोते हुए कहा " महाराज! आप सारे विश्व के चक्रवर्ती सम्राट होते हुए भी मेरी जैसी भिखारिन की झोपडी में पधारे तथा स्वयं मेरे पुत्र बनकर मेरी सेवा करते रहे । मैं अपना सबकुछ देकर भी इस उपकार का बदला नहीं चुका सकती , तभ राजा विक्रमादित्य कहते है यह हमारे जीवन का लक्ष्य है दुखियों के दुख दूर करना । बुढिय़ा माँ कहती है "हे विक्रम " जब तक सुरज - चांद रहेगा विक्रम तेरा नाम रहेगा । उस वृद्धा माता के आशीर्वाद में स्वयं भारत माता का अपने इस तेजस्वी पुत्र के लिए आशीर्वाद मिलना तय था । संभवत उसी के प्रताप से आज तक महाराज विक्रमादित्य भारत की कोटी कोटी संतानों के हृदयदेश पर राज्य कर रहे हैं । विक्रमादित्य का नाम 20 शताब्दियों से निरंतर भारतियों के लिए प्रेरणा प्रवाहित करता आ रहा है । उन्होंने शकों और हूणों को खदेङ कर एक शक्तिशाली एकछत्र राज्य का निर्माण किया, उन्होंने साहित्य एवं कला को महान प्रोत्साहन दिया और धर्म की रक्षा की सबसे बड कर दुखियों एवं दिनों का दुःख दूर किया ।राजा विक्रमादित्य भगवान परशुराम, श्री राम और श्री कृष्ण की स्मृतियों का समन्वय बन कर आये और उन्होंने राष्ट्र के हृदय में एक प्रेम तथा श्रद्धा का अलौकिक स्थान बना दिया । अपने उस गौरवशाली अतीत की स्मृति मात्र से भारतियों का हृदय स्वाभिमान से खिल उठता है । आज से 2071 वर्ष पहले भारतीय इतिहास में नूतन युग का प्रारंभ करने वाले चक्रवर्ती सम्राट महाराज विक्रमादित्य एक महान तेजस्वी महाप्रतापि महापुरुष थे । राजा विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सबसे ज्यादा ज्ञानी राजा थे । राजा विक्रमादित्य ब्रहमांड के ऐसे महान राजा थे जिन्होंने 9 गृह का न्याय किया । राजा विक्रमादित्य को सभी भगवान सहित सभी देवी - देवता ने दर्शन दिये थे । राजा विक्रमादित्य ने अपनी भक्ति से भगवान महाकाल वह माता हरसिद्धि के दर्शन किये , भगवान महाकाल और माता हरसिद्धि विक्रमादित्य की भक्ति से इतना प्रसन्न हुए की माता ने विक्रमादित्य को दैविक शक्तियां प्रदान की । वहीं भगवान महाकाल ने उन्हें कहीं वरदान दिये । उन्हीं के आशीर्वाद से विक्रमादित्य दुनिया के सबसे महान राजा बने । राजा विक्रमादित्य के राज्य में कोई भी अकाल मृत्यु नहीं मरता था । राजा विक्रमादित्य का न्याय पूरे विश्व में प्रसिद्ध था । राजा विक्रमादित्य के राज्य मालवा में आजतक कभी सुखा नहीं पङा । महाराज विक्रमादित्य की महानता इस बात से सिध्द होती है की स्वयं देवराज इंद्र भी उनसे सलाह लेते थे । विक्रमादित्य चारों युगों के सबसे महान राजा थे । विक्रमादित्य को देवराज इंद्र ने बत्तिस पुतलियोँ और सोने, हीरे और मणियोँ से सजा सिंघासन भेंट किया था।