एक बार पाण्डवों के वनवास के समय भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा ने एकान्त में द्रौपदी से पूछाः"सखी!किस बर्ताव से तुम हृष्ट-पुष्ट अंगोंवाले तथा लोकपालों के समान वीर पाण्डवों के हृदय पर अधिकार रखती हो?किस प्रकार तुम्हारे वश में रहते हुए वे कभी तुम पर कुपित नहीं होते?क्या कारण है कि पाण्डव सदा तुम्हारे अधीन रहते हैं?इसका यथार्थ रहस्य मुझे बताओ।" पतिपरायणा द्रौपदी ने कहाः"यशस्विनी!मैं स्वयं महात्मा पाण्डवों के साथ जैसा बर्ताव करती हूँ, वह सब सच-सच सुनाती हूँ। मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोड़कर सदा पूरी सावधानी के साथ पाण्डवों तथा उनकी अन्यान्य स्त्रियों की भी सेवा करती हूँ। अपनी इच्छाओं का दमन करके मन को अपने-आप में ही समेटे हुए, केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ। अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। कभी मेरे मुख से कोई बुरी बात न निकल जाये, इसकी आशंका से सदा सावधान रहती हूँ। असभ्य की भाँति कहीं खड़ी नहीं होती व निर्लज्ज की तरह सब ओर दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर नहीं बैठती। दुराचार से बचती तथा चलने-फिरने में भी असभ्यता न हो जाय, उसके लिए सतत सावधान रहती हूँ। देवता, मनुष्य, गंधर्व, युवक, बड़ी सजधजवाला धनवान अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन पाण्डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता है। पतियों के अभिप्रायपूर्ण संकेत का सदैव अनुसरण करती हूँ। मैं घर के बर्तनों को माँज-धोकर साफ रखती हूँ। शुद्ध व स्वादिष्ट रसोई तैयार करके सबको ठीक समय पर भोजन कराती हूँ, मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर घर में गुप्त रूप से अनाज का संचय रखती हूँ और घर को झाड़-बुहार, लीप-पोतकर सदा स्वच्छ व पवित्र बनाये रखती हूँ। मैं कोई ऐसी बात मुँह से नहीं निकलती, जिससे किसी का तिरस्कार होता हो। आलस्य को कभी पास नहीं आने देती। पति के किये हुए परिहास के सिवा अन्य समय में नहीं हँसा करती, दरवाजे पर बारबार नहीं खड़ी होती, जहाँ कूड़े-करकट फेंके जाते हों, ऐसे गंदे स्थानों में नहीं ठहरती और बगीचों में भी बहुत देर तक अकेली नहीं घूमती हूँ। नीच पुरुषों से बात नहीं करती, मन में असंतोष को स्थान नहीं देती और परायी चर्चा से दूर रहती हूँ। न अधिक हँसती हूँ और न अधिक क्रोध करती हूँ। क्रोध का अवसर ही नहीं आने देती। सदा सत्य बोलती हूँ। पतिदेव के बिना किसी भी स्थान में अकेली रहना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। मेरे स्वामी जब कभी किसी कार्य से परदेश चले जाते हैं, उन दिनों में मैं फूलों का श्रृंगार नहीं करती, अंगराग नहीं लगाती और निरन्तर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती हूँ। मेरे पति जिस चीज को नहीं खाते-पीते अथवा नहीं सेवन करते, वह सब मैं त्याग देती हूँ। अपने अंगों को वस्त्राभूषणों से विभूषित रखकर पूरी सावधानी के साथ मैं अपने पति के प्रिय एवं हित-साधन में संलग्न रहती हूँ। साध्वी स्त्री को चाहिए कि वह कभी किसी प्रकार भी पति का अप्रिय न करे। पापाचार से दूर रहने वाली सती स्त्रियों के साथ ही सखी भाव स्थापित करना चाहिए। जो अत्यन्त क्रोधी, नशे में चूर रहने वाली, अधिक खाने वाली, चोरी की लत रखने वाली, दुष्ट और चंचल स्वभाव की स्त्रियाँ हों, उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिए। मैं दिन रात आलस्य त्याग कर भिक्षादान, श्राद्ध, पर्वकालोचित यज्ञ, मान्य पुरुषों का आदर-सत्कार, विनय, नियम तथा अन्य जो-जो धर्म मुझे ज्ञात हैं, उन सबका सब प्रकार से उद्यत होकर पालन करती हूँ। पतियों के शयन करने से पहले मैं कभी शयन नहीं करती, उनसे पहले भोजन नहीं करती, उनकी इच्छा के विरूद्ध कोई आभूषण नहीं पहनती और अपने-आपको सदा नियंत्रण में रखती हूँ। मैं सदा स्वयं वीरजननी, सत्यवादिनी आर्या कुन्तीदेवी की भोजन, वस्त्र और जल आदि से सेवा करती रहती हूँ। वस्त्र-आभूषण और भोजन आदि मैं कभी सास की अपेक्षा अपने लिए कोई विशेषता नहीं रखती। मेरी सास कुन्तीदेवी पृथ्वी के समान क्षमाशील हैं। मैं कभी उनकी निन्दा नहीं करती। मैं सावधानी से सर्वदा सवेरे उठकर समुचित सेवा के लिए तैयार रहती हूँ। गुरुजनों की सेवा-सुश्रुषा से ही मेरे पति मेरे अनुकूल रहते हैं। स्रोतः लोक कल्याण सेतु ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ