ब्रह्मचर्य का तात्त्विक अर्थ क्या है?

                   ब्रह्मचर्य का तात्त्विक अर्थ। 'ब्रह्मचर्य' शब्द बड़ा चित्ताकर्षक और पवित्र है। इसका स्थूल अर्थ तो यही प्रसिद्ध है कि अविवाहित रहना, काम-भोग न करना, स्त्रियों से दूर रहना आदि-आदि परंतु यह बहुत सीमित अर्थ है। इस अर्थ में केवल वीर्यरक्षण ही ब्रह्मचर्य है परंतु ध्यान रहे, केवल वीर्यरक्षण मात्र साधना है, मंजिल नहीं ! मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है अपने आपको जानना अर्थात् आत्मसाक्षात्कार करना। जिसने आत्मसाक्षात्कार कर लिया, वह जीवन्मुक्त हो गया। वह आत्मा के आनंद में, ब्रह्मानंद में विचरण करता है। उसे अब संसार से, स्वर्ग से और ईश्वर से कुछ पाना शेष नहीं रहा। उसने आनन्द का स्रोत भीतर ही पा लिया। अब वह आनन्द के लिए किसी भी बाहरी विषय पर निर्भर नहीं है। वह पूर्ण स्वतंत्र है। उसकी क्रियाएँ सहज होती हैं। संसार के विषय उसकी आनंदमय आत्मिक स्थिति को डोलायमान नहीं कर सकते। वह संसार के तुच्छ विषयों की पोल को समझकर अपने आनंद में मस्त हो इस भूतल पर विचरण करता है। वह चाहे लँगोटी में हो चाहे कीमती वेशभूषा में, घर में रहता हो चाहे झोंपड़े में, गृहस्थी चलाता हो चाहे एकांत जंगल में विचरता हो, ऐसा महापुरुष ऊपर से भले कंगाल नजर आता हो परंतु भीतर से शहंशाह होता है क्योंकि उसकी सब वासनाएँ, सब कर्तव्य पूरे हो चुके होते हैं। सब व्यवहार करते हुए भी उसकी हर समय समाधि रहती है। उसकी समाधि सहज होती है, अखण्ड होती है। वह सदैव अपने ब्रह्मानंद में अवस्थित रहता है। स्थूल अर्थ में ब्रह्मचर्य का अर्थ जो वीर्यरक्षण समझा जाता है, उस अर्थ में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ व्रत है, श्रेष्ठ तप है, श्रेष्ठ साधना है और इस साधना का फल है आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार। इस फलप्राप्ति के साथ ही ब्रह्मचर्य का पूर्ण अर्थ प्रकट हो जाता है। जब तक किसी भी प्रकार की वासना शेष है, तब तक कोई पूर्ण ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक पूर्ण रूप से वासना निवृत्त नहीं होती। इस वासना की निवृत्ति के लिए, अंतःकरण की शुद्धि के लिए, ईश्वर की प्राप्ति के लिए, सुखी जीवन जीने के लिए, अपने मनुष्य जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए या कहो परमानंद की प्राप्ति के लिये...
                             कुछ भी हो, वीर्यरक्षणरूपी साधना सदैव सब अवस्थाओं में उत्तम है, श्रेष्ठ है और आवश्यक है। वीर्यरक्षण कैसे हो, इसके लिए यहाँ हम कुछ स्थूल और सूक्ष्म उपायों की चर्चा करेंगे। वीर्यरक्षा के उपाय सादा रहन-सहन बनायें काफी लोगों को यह भ्रम है कि जीवन तड़क-भड़कवाला बनाने से वे समाज में कुछ विशेष माने जाते हैं। वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। इससे तो केवल अपने अहंकार का ही प्रदर्शन होता है। लाल रंग के भड़कीले एवं रेशमी कपड़े मत पहनना। तेल फुलेल और भाँति-भाँति के इत्रों का प्रयोग करने से बचना। जीवन में जितनी तड़क-भड़क बढ़ेगी, इन्द्रियाँ उतनी ही चंचल हो उठेंगी, फिर वीर्यरक्षा तो दूर की बात है। इतिहास पर भी हम दृष्टि डालें तो महापुरुष हमें ऐसे ही मिलेंगे, जिनका जीवनि प्रारम्भ से ही सादगीपूर्ण था। सादा रहन-सहन तो बड़प्पन का द्योतक है। दूसरों को देखकर उनकी अप्राकृतिक व अधिक आवश्यकताओंवाली जीवनशैली का अनुसरण करो।
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ब्रह्मचर्य क्या है और ब्रह्मचर्य-पालन के नियम क्या क्या हैँ?

               कुछ मूर्ख लोग सोचते है की विवाह न करना ब्रह्मचारी बनना है और भगवा वस्त्र पहन लेने और अपना नाम ब्रह्मचारी प्रचारित करबाने ले लेने से कोई ब्रह्मचारी नहीँ हो जाता। कर्म ब्रह्मचर्य के नियम अनुसार हो तभी वो ब्रह्मचारी होता है। विवाह न करना और ब्रह्मचारी कहलबाना मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीँ है। ब्रह्मचर्य क्या है और ब्रह्मचर्य-पालन के नियम क्या-क्या हैँ? (ब्रह्मलीन ब्रह्मनिष्ठ स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के प्रवचन से)
                   ऋषियों का कथन है कि ब्रह्मचर्य ब्रह्म-परमात्मा के दर्शन का द्वार है, उसका पालन करना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए यहाँ हम ब्रह्मचर्य-पालन के कुछ सरल नियमों एवं उपायों की चर्चा करेंगेः
१. ब्रह्मचर्य तन से अधिक मन पर आधारित है। इसलिए मन को नियंत्रण में रखो और अपने सामने ऊँचे आदर्श रखो।
२. आँख और कान मन के मुख्यमंत्री हैं। इसलिए गंदे चित्र व भद्दे दृश्य देखने तथा अभद्र बातें सुनने से सावधानी पूर्वक बचो।
३. मन को सदैव कुछ-न-कुछ चाहिए। अवकाश में मन प्रायः मलिन हो जाता है। अतः शुभ कर्म करने में तत्पर रहो व भगवन्नाम-जप में लगे रहो।
४.'जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।'- यह कहावत एकदम सत्य है। गरम मसाले, चटनियाँ, अधिक गरम भोजन तथा मांस, मछली, अंडे, चाय कॉफी, फास्टफूड आदि का सेवन बिल्कुल न करो।
५. भोजन हल्का व चिकना स्निग्ध हो। रात का खाना सोने से कम-से-कम दो घंटे पहले खाओ।
६. दूध भी एक प्रकार का भोजन है। भोजन और दूध के बीच में तीन घंटे का अंतर होना चाहिए।
७. वेश का प्रभाव तन तथा मन दोनों पर पड़ता है। इसलिए सादे, साफ और सूती वस्त्र पहनो। खादी के वस्त्र पहनो तो और भी अच्छा है। सिंथेटिक वस्त्र मत पहनो। खादी, सूती, ऊनी वस्त्रों से जीवनीशक्ति की रक्षा होती है व सिंथेटिक आदि अन्य प्रकार के वस्त्रों से उनका ह्रास होता है।
८. लँगोटी बाँधना अत्यंत लाभदायक है। सीधे, रीढ़ के सहारे तो कभी न सोओ, हमेशा करवट लेकर ही सोओ। यदि चारपाई पर सोते हो तो वह सख्त होनी चाहिए।
९. प्रातः जल्दी उठो। प्रभात में कदापि न सोओ। वीर्यपात प्रायः रात के अंतिम प्रहर में होता है।
१०. पान मसाला, गुटखा, सिगरेट, शराब, चरस, अफीम, भाँग आदि सभी मादक (नशीली) चीजें धातु क्षीण करती हैं। इनसे दूर रहो।
११. लसीली (चिपचिपी) चीजें जैसे भिंडी, लसौड़े आदि खानी चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में ब्राह्मी बूटी का सेवन लाभदायक है। भीगे हुए बेदाने और मिश्री के शरबत के साथ इसबगोल लेना हितकारी है।
१२. कटिस्नान करना चाहिए। ठंडे पानी से भरे पीपे में शरीर का बीच का भाग पेटसहित डालकर तौलिये से पेट को रगड़ना एक आजमायी हुई चिकित्सा है। इस प्रकार १५-२० मिनट बैठना चाहिए। आवश्यकतानुसार सप्ताह में एक-दो बार ऐसा करो।
१३. प्रतिदिन रात को सोने से ठंडा पानी पेट पर डालना बहुत लाभदायक है।
१४. बदहज्मी व कब्ज से अपने को बचाओ।
१५. सेंट, लवेंडर, परफ्यूम आदि से दूर रहो। इन्द्रियों को भड़काने वाली किताबें न पढ़ो, न ही ऐसी फिल्में और नाटक देखो।
१६. विवाहित हो तो भी अलग बिछौने पर सोओ।
१७. हर रोज प्रातः और सायं व्यायाम, आसन और प्राणायाम करने का नियम रखो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ