जब कठिनाईयाँ आयें तब ऐसा मानना कि मुझ में सहन शक्ति बढ़ाने के लिए ईश्वर ने ये संयोग भेजे हैं | कठिन संयोगों में हिम्मत रहेगी तो संयोग बदलने लगेंगे | विषयों में राग-द्वेष रह गया होगा तो वह विषय कसौटी के रूप में आगे आयेंगे और उनसे पार होना पड़ेगा।
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वेदान्त शास्त्र यह नहीं कहता कि ‘अपने आपको जानो ।’ अपने आपको सभी जानते हैं । कोई अपने को निर्धन जानकर धनी होने का प्रयत्न करता है, कोई अपनेको रोगी जानकर निरोग होने को इच्छुक है । कोई अपनेको नाटा जानकर लम्बा होने के लिए कसरत करता है तो कोई अपनेको काला जानकर गोरा होने के लिए भिन्न भिन्न नुस्खे आजमाता है । नहीं, वेदान्त यह नहीं कहता । वह तो कहता है : ‘अपने आपको ब्रह्म जानो ।’ जीवन में अनर्थ का मूल सामान्य अज्ञान नहीं अपितु अपनी आत्मा के ब्रह्मत्व का अज्ञान है । देह और सांसारिक व्यवहार के ज्ञान अज्ञान से कोई खास लाभ हानि नहीं है परंतु अपने ब्रह्मत्व के अज्ञान से घोर हानि है और उसके ज्ञान से परम लाभ है।
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जो गुरूभक्तिमार्ग से विमुख बना है वह मृत्यु, अन्धकार और अज्ञान के भँवर में घूमता रहता है। गुरूभक्तियोग अमरत्व, परम सुख, मुक्ति, सम्पूर्णता, शाश्वत आनन्द और चिरंतन शान्ति प्रदान करता है। गुरूभक्तियोग का अभ्यास सांसारिक पदार्थों के प्रति निःस्पृहता और वैराग्य प्रेरित करता है तथा तृष्णा का छेदन करता है एवं कैवल्य मोक्ष देता है। गुरूभक्तियोग का अभ्यास भावनाओं एवं तृष्णाओं पर विजय पाने में शिष्य को सहायरूप बनता है, प्रलोभनों के साथ टक्कर लेने में तथा मन को क्षुब्ध करने वाले तत्त्वों का नाश करने में सहाय करता है। अन्धकार को पार करके प्रकाश की ओर ले जाने वाली गुरूकृपा करने के लिए शिष्य को योग्य बनाता है। गुरूभक्तियोग का अभ्यास आपको भय, अज्ञान, निराशा, संशय, रोग, चिन्ता आदि से मुक्त होने के लिए शक्तिमान बनाता है और मोक्ष, परम शान्ति और शाश्वत आनन्द प्रदान करता है।
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तूफान और आँधी हमको न रोक पाये। वे और थे मुसाफिर जो पथ से लौट आये।। मरने के सब इरादे जीने के काम आये। हम भी तो हैं तुम्हारे कहने लगे पराये।। ऐसा कौन है जो तुम्हें दुःखी कर सके? तुम यदि न चाहो तो दुःखों की क्या मजाल है जो तुम्हारा स्पर्श भी कर सके? अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड को जो चला रहा है वह चेतन तुम्हीं हो।
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तुम निर्भयतापूर्वक अनुभव करो कि मैं आत्मा हूँ । मैं अपनेको ममता से बचाऊँगा । बेकार के नाते और रिश्तों में बहते हुए अपने जीवन को बचाऊँगा । पराई आशा से अपने चित्त को बचाऊँगा । आशाओं का दास नहीं लेकिन आशाओं का राम होकर रहूँगा।
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धर्म का साधन शरीर है। शरीर से ही सारी साधनाएँ सम्पन्न होती हैं। यदि शरीर कमजोर है तो उसका प्रभाव मन पर पड़ता है, मन कमजोर पड़ जाता है।
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निरीक्षण करो कि किन किन कारणों से उन्नति नहीं हो रही है । उन्हें दूर करो । बार बार उन्हीं दोषों की पुनरावृत्ति करना उचित नहीं। अगर देखभाल नहीं करोगे तो उम्र यूँ ही बीत जायेगी परंतु बननेवाली बात नहीं बनेगी। जितना चलना चाहिए उतना चलना होगा, जितना चल सकते हो उतना नहीं। आशिक नींद में ग्रस्त नहीं होते। व्याकुल ह्रदय से तड़पते हुए प्रतिक्षा करते हैं। सदा जागृत रहते हैं। सदा ही सावधान रहा करते हैं।
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जीवन में आने वाले सुख-दुःख के प्रसंगों में क्या करना है? सुख-दुःख का उपयोग। सुख-दुःख का उपयोग करने वाला सुख-दुःख का स्वामी बन जाता है। स्वामी को यदि अपना स्वामीपना याद है तो सेवक उसकी आज्ञा में रहते हैं। चाहो जब सेवक को भीतर बुला लो, चाहो जब ऑफिस से बाहर खड़ा कर दो। मर्जी तुम्हारी। उसका उपयोग करने की कला आ गई तो आप स्वामी हो गये।
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सागर की सतह पर दौड़ती हुई तरंगे कम हो जाती हैं तो सागर शांत दिखता है। सागर की गरिमा का एहसास होता है। चित्तरूपी सागर में वृत्तिरूपी लहरियाँ दौड़ रही हैं। वर्त्तमान का आदर करने से वे वृत्तियाँ कम होने लगेंगी। एक वृत्ति पूरी हुई और दूसरी अभी उठने को है, उन दोनों के बीच जो सन्धिकाल है वह बढ़ने लगा। बिना वृत्तियों की अनुपस्थिति में भी हम हैं। इस अवस्था में केवल आनंद-ही-आनंद है। वही हमारा असली स्वरूप है। इस निःसंकल्पावस्थाका आनन्द बढ़ाते जाओ। मन विक्षेप डाले तो बीच-बीच में ॐ का प्यार गुंजन करके उस आनंद-सागर में मन को डुबाते जाओ। जब ऐसी निर्विषय, निःसंकल्प अवस्था में आनंद आने लगे तो समझो यही आत्मदर्शन हो रहा है क्योंकि आत्मा आनन्दस्वरूप है।
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'मैं हूँ' यह तो सबका अनुभव है लेकिन 'मैं कौन हूँ' यह ठीक से पता नहीं है। संसार में प्रायः सभी लोग अपने को शरीर व उसके नाम को लेकर मानते हैं कि 'मैं अमुक हूँ... मैं गोविन्दभाई हूँ।' नहीं.... यह हमारी वास्तविक पहचान नहीं है। अब हम इस साधना के जरिये हम वास्तव में कौन हैं.... हमारा असली स्वरूप क्या है.... इसकी खोज करेंगे। अनन्त की यह खोज आनन्दमय यात्रा बन जायेगी।
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जिस प्रकार मधुमक्खी सैकडो–हजारों फूलों से मकरंद चूस कर लाती हैं और उसे अपने छत्ते में कई दिनों तक संजो कर उससे मधु बनती हैं फिर उसका रसास्वादन करती हैं , ठीक उसी प्रकार सदगुरु एवं उनके द्वारा निर्दिष्ट सत्सस्त्रों के अमृतवचनों को अपने ह्रदय में संजोने वाला और उनका मनन कर उन्हें मधु की तरह गाढा बनाने वाला बुद्धिमान साधक इस भगवदीय खजाने के द्वारा गुरु अमृत का रसास्वादन कर अत्मोनत्ति के रास्ते आगे बढता है।
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जो साधक या शिष्य गुरुकृपा प्राप्त होने के बाद भी उसका महत्त्व ठीक से न समझते हुए गहरा ध्यान नहीं करते, अन्तर्मुख नहीं होते और बहिर्मुख प्रवृत्ति में लगे रहते हैं वे मूर्ख है और भविष्य में अपने को अभागा सिद्ध करते हैं।
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जैसी प्रीति संसार के पदार्थों में है, वैसी अगर आत्मज्ञान, आत्मध्यान, आत्मानंद में करें तो बेड़ा पार हो जाय।
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