होली में नृत्य भी होता है, हास्य भी होता है, उल्लास भी होता है और आल्हाद भी होता है लेकिन उल्लास, आनंद, नृत्य को प्रेमिका-प्रेमी सत्यानाश की तरफ ले जायें अथवा धुलेंडी के दिन एक-दुसरे पर धुल डाले, कीचड़ उछालें, भाँग पियें यह होली की विकृति है । यह उत्सव तो धुल में गिरा, विकारों में गिरा हुआ जीवन सत्संगरूपी रंग की चमक से चमकाने के लिए है । जो विकारों में, वासनाओं में, रोगों में, शोकों में, धुल में मिल रहा था, उस जीवन को सत्संग में, ध्यान में और पलाश के फूलों के रंग से रँगकर सप्तधातु, सप्तरंग संतुलित करके ओज, बल, वीर्य और आत्मवैभव जगाने के लिए धुलेंडी का उत्सव है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
होलीअर्थात हो... ली... मंगलमय ईश्वर को जानकर आप जो कुछ करते है वाह मंगलमय हो जाता है।  होली: हो...ली... अर्थात जो हो गया। जो हो गया उसे भूल जाओ। निंदा हो ली सो हो ली, प्रशंसा हो ली सो हो ली। हो...ली... जो हो गया सो हो। तुम तो रहो मस्ती और आनंद में। होली का यह उत्सव बड़ा प्राचीन उत्सव है। पहले इस होलि के उत्सव में, वसंतोत्सव में नय गेहूँ, नये जौ आदि की यज्ञ में आहुतियाँ दी जाती थी फिर अन्न ग्रहण करते थे। आज भी कच्चे चने जी भूने जाते है उसे होलाबोलते हैं।  यह होलामानो उसी प्राचीन होलीका प्रतिक है।  होली एक ऐसा अनूठा त्यौहार हैं जिसमें गरीब की संकीर्णता और आमिर का अहं दोनों किनारे रह जाते है।  दबा हुआ मन एवं अहंकारी मन, दूषित मन और शुद्ध मन आज ये सारे मन अमनहोकर मालिक के रंग में रमने के लिए मैदान में आ जाते है।  इस होलीने न जाते कितने टूटे हुए दिलों को जोड़ा है और न जाने कितने सूखे दिल रंगे हैं, भिगोये है।  मनोवैज्ञानिक कहते है कि मनुष्य को कभी-कभी फ्री सोसायटीमिलनी चाहिए।  एकदम बंधनमुक्त जो फ्री सोसायटीकी आवश्यकता बताते हैं, उन्हें हम धन्यवाद देते हैं लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति में फ्री सोसायटीकी आवश्यकता नहीं बतायी गयी किन्तु इस आवश्यकता को पूरी करने के लिए होलि का उत्सव ही व्यवस्थित चल रहा है।  होलि का उत्सव मन की स्वतंत्रता प्रदान करता है।  जब वैदिक ढंग से होली मनायी जाती थी उस ज़माने में मानसिक तनाव-खिंचाव आदि नहीं होते थे किंतु आज जहरीले रंगों के प्रयोग, शराब आदि पीने-पिलाने एवं कीचड़ आदि उछालने से होली का रूप बड़ा विकृत हो गया है।  जिसका मन खुला होता है उस पर आसुरी वृत्ति, राक्षसी वृत्ति का प्रभाव नहीं पड़ता है किंतु जो दबा-सिकुड़ा रहता है, भयभीत रहता है उसी पर दुसरे का दबाव आता है और उसीका शोषण होता है।  अत: ब किसीसे भयभीत हो, न किसीको भयभीत करो।  यह मुक्ति देने का और मुक्त होने का दिन है।  आप भी मुक्त होकर हंसिए-खेलिए और दूसरों को भी हँसने-खेलने दीजिए।  वसंत इन्नु रत्नयो: ग्रीष्म इन्नु रत्नय:।  वर्षाSपिन्नु: शरदो: हेमंत: शिशिर: इन्नु: रत्नय:। ।  यह सामवेद का मंत्र है जिसका अर्थ है निश्चय ही वसंत रमणीय हो, निश्चय ही ग्रीष्म रमणीय हो, निश्चय ही वर्षा और उसके पीछे के शरद, हेमंत और शिशिर हमारे रमणीय हो। मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, वरन स्वामी है।  परिस्थितियाँ मनुष्य का निर्माण नहीं करती अपितु मनुष्य परिस्थितियों का निर्माण करता है, इसलिए शुभ संकल्प करके आगे बढना चाहिए।  वेद सदैव हममे पौरुष का फल जगाने के लिए ऐसी व्यवस्था उत्सव के रूप में कर देते है ताकि हम छोटा-बड़ा, सुख-दुःख, मिलना-बिछुड़ना आदि सब कल्पित है; केवल एक आनंदस्वरूप आत्मा ही सत्य है, इस सत्य को जान सके, इस सत्य के आनंद को, सत्य के रस को, सत्य के माधुर्य को पा सकें एवं मिथ्या आडबर, मेरे-तेरे, छोटे-बड़े के भेद को मिटाकर एक साथ आनंदित होने का अवसर पा सके।  होली निश्चय ही हमारे जीवन को अनेक पीडाओं से बचाकर मुस्कराहट की ओर ले आती है।  एक राक्षसी ने तप करके शिवजी से वरदान तो पा लिया था कि यह किसी भी बालक को इच्छानुसार ग्रहण कर सकेगीलेकिन शिवजी ने यह शर्त भी रख दी थी कि जो होली के दिन नि:शंक होकर नाचेगा-कूदेगा, उत्सव मनायेगा, आनंदित होगा और कुछ भी बोलने में संकोच नहीं करेगा ऐसा फक्कड मनुष्य और उसकी संतान तेरे चुगल में कमी नहीं आयेगी। यह कथा चाहे समझाने के लिए हो या घटित हो लेकिन इतना तो अवश्य समझना चाहिए कि अपने चित्त को संशयों से, डर से और सिकुडान से बाहर ले आना चाहिए।  अनेक विघ्न-बाधाओं से जूझते रहने पर भी प्रहलाद की श्रद्धा नहीं डिगी।  अनेक पीड़ाओ के बीच भी मुस्कराकर जीने की कला का नाम है प्रहलाद।  विघ्न-बाधा एवं मुसीबतों के बीच तथा श्रद्धाहिन व्यक्तियों के दबाववाले वातावरण में रह सके उसका नाम है प्रहलाद।  हम अदितिपुत्र देवों के उपासक है फिर भी दैत्यपुत्र प्रहलाद से हमे बहुत कुछ सीखने को मिलता है।  पिता हिरण्यकशिपु भगवान के नाम से भी चिढ़ता था।  वैदिक रीती-रिवाजों का ध्वंस करता था।  हिरण्यकशिपु अर्थात जो स्वर्ग के पीछे, धन के पीछे अधी दौड़ लगाये।  शांति, मुक्तिदायक परमात्मा का जप न तो स्वयं करे, न ही किसीको करने दे ऐसे हिरण्यकशिपु पिता के घर जन्मा है प्रहलाद फिर भी आनंदित और आहलादित रहता है।  एक बार पिता ने पुत्र प्रहलाद को अपनी गोद में बैठाते हुए कहा, ‘ पुत्र ! मैं तुझे इतना-इतना रोकता-टोकता हूँ फिर भी तू भगवान विष्णु की भक्ति नहीं छोड़ता... आखिर बात क्या है ?’ तब प्रहलाद ने कहा पिताजी ! आप पूछते ही है तो एक कथा सुनिये।  एज राजा ने बड़ा परिश्रम करके, नौ-दस महीने तक मेहनत करके एक महल बनाया और वह राजा महल में रहने के लिए आया किंतु उस महल में एक मच्छर भूँSSS भूँSSS..’ करने लगा तो क्या राजा महल छोडकर भाग जायेगा?” हिरण्यकशिपु : हरगिज नहीं। प्रहलाद “ “ऐसे ही यह जीवात्मा माता के गर्भ में नौ-दस महीने रहकर, अपना शरीररूपी नौ द्वारवाला महल बनता है।  फिर उस महल में रहकर आनंदस्वरूप आत्मसुख को, ईश्वर को पाने का यत्न करता है तो आपके जैसा मच्छर यदि भूँSSS भूँSSS..’ करने लगे तो मैं भक्ति छोड़ दूँ क्या?” कितनी खरी सुना दी उस दैत्यपुत्र ने ! किंतु उस क्रूर स्वभाववाले हिरण्यकशिपु को हुआ कि इतना डाँटने फटकारने पर भी प्रहलाद नहीं मानता, अत: उसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। यह सोचकर उसने एक षडयंत्र रचा।  उसकी बहन होलिका को वरदान था कि अमुक मंत्र जपकर वाह अग्नि के भीच भी बैठे तो उसे अग्नि नहीं जलायेगी।  अत: होलिका को उह काम सौंपा कि प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जा।  तू तो जलनेवाली नहीं है और प्रहलाद जल मरेगा तो मेरा सिरदर्द मिट जायेगा। व्यवस्था की गयी।  होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर बैठ गयी लेकिन होलिका जल मरी और प्रहलाद बाख गया।  नीच वृत्तिवाले जलते रहते है और प्रहलाद
जैसे भक्त उस अग्निपरीक्षा से भी पार हो जाते है।  प्रहलाद विश्व का ऐसा प्रथम नागरिक था जिसने पिता के ही आगे सत्याग्रही होकर दिखाया।  कितना राज्यबल ! कितनी कूटनीति का बल ! फिर भी प्रहलाद ने सत्य का आगह नही छोड़ा जब एक ईश्वर ही सत्य है तो उसीको पाउँगा।  वाह ईश्वर ही प्राणीमात्र का आधार है।  मैं उसीकी भक्ति में अडिग रहूँगा।  पिताजी ! आपको जो करना हो, करे।  पिछले जन्म में भी न जाने कौन मेरा पिता था और में किसका पिता था यह मैं नहीं जानता लेकिन मुझमे और आपमें, नर-नारी के अत:करण में जिसकी चेतना कार्य कर रही है, मैं उस नारायण की ही शरण में रहूँगा। पिता प्रहलाद को जितना ही मुसीबतों के बीच डालता है उतना ही वह सत्याग्रह में दृढ़ रहता है।  कितनी दृढ निष्ठा है प्रहलाद में ! होलि का उत्सव हमे यही पावन संदेश देता है कि हम भी अपने जीवन में आनेवाली विघ्न-बाधाओं का धैर्यपूर्वक सामना करें एवं कैसी भी विकट परिस्थिति हो किंतु प्रहलाद की तरह ही अपनी श्रद्धा को भी अडिग बनाये रखे।  जहरीले रंगो की जगह परम शुद्ध, परम पावन परमात्म-नामसंकीर्तन के रंग में रंगे-रंगाये एवं छोटे-बड़े, मेरे-तेरे के भेदभाव का भूलकर सभी में उसी एक सत्यस्वरूप, चैतन्यस्वरूप परमात्मा को निहारकर अपना जीवन धन्य बनाने के मार्ग पर अग्रेसर हो।


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