एक तपस्वी तप कर रहे थे । उन्होंने इतना तप किया कि इंद्र घबरा गया - तपस्वी कहीं किसी को इंद्र होने का वरदान न दे दे..... मुझसे इन्द्रासन न छीन ले।' अत: इंद्र शिकारी का रूप धारण कर आए बोले महाराज लीजिए ये धनुष बाण रखिए। मैं अभी आता हूँ ।" तपस्वी - "मैने ये सब छोड़ दिया है । राजपाठ छोड़कर मैं तपस्वी बन गया हूँ । अब धनुष-बाण से मुझे क्या लेना-देना ?" शिकारी - 'आपको लेना-देना नहीं है, फिर भी रखिए ।' तपस्वी -"में इसे रखकर झंझट में क्यों पडूँ। तू शिकारी है, मैं तपस्वी हूँ। तेरा-मेरा क्या लेना देना ? मुझे तप करने दे ।" शिकारी - 'महाराज आप तो दयालु हैं,परोपकारी हैं।' ऐसा करके शिकारी बने इंद्र ने तपस्वी की वाहवाही की। तपस्वी -"अच्छा भाई रख दे कोने में ।" इन्द्र का काम बन गया । वे तो नौ दो ग्यारह हो गये। तपस्वी रोज ध्यान में बैठते किन्तु वही पुरानी आदत थी, क्षत्रिय थे और धनुष-बाण चलाया हुआ था । अत: उसके मन में ध्यान के समय विचार आता कि 'धनुष तो बढ़िया है......मजबूत भी है । अपने को क्या ? अपन तो तपस्वी हैं......' इंकार भी आमन्त्रण देता है । बार-बार धनुष को देखकर मन में विचार आता कि -'अपन तो तपस्वी हैं ।' लेकिन ध्यान में मन नहीं लगा तो हुआ कि - 'चलो, जरा धनुष चलाकर देखे।' धनुष-बाण का मजा लेते-लेते तपस्वी से शिकारी बन गये और तपस्या छूट गई। इसमें क्या ? इतना सा करने में क्या जाता है ? ऐसा करते-करते ही मनुष्य उसमें पूरा फँस जाता है और अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य को भूल जाता है ! सीख-मनुष्य को चाहिए कि प्रत्येक क्षण सावधान रहे और अपने को कभी भी तुच्छ आदतों का शिकार न बनने दे। दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाशवी आकर्षणों से बचाकर परमात्म सुख, परमात्म ज्ञान पाना ही इसकी सच्ची सार्थकता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ